श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 43-53
द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः (7)
प्यारे नारद! परम पुरुष की उस योगमाया को मैं जानता हूँ तथा तुम लोग, भगवान् शंकर, दैत्यकुलभूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, मनुपुत्र प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं । इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरुरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्तरय, दिलीप, सौभरि, उर्तक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिशेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आरिर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं । जिन्हें भगवान् के प्रेमी भक्तों का-सा स्वभाव बनाने की शिक्षा मिली हैं, वे स्त्री, शूद्र, हूण, भील और पाप के कारण पशु-पक्षी आदि योनियों में रहने वाले भी भगवान् की माया का रहस्य जान जाते हैं और इस संसार सागर से सदा के लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक सदाचार का पालन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है । परमात्मा का वास्तविक स्वरुप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरुप है। न उसमें माया का मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनों से परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहाँ तक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने वाले कर्मों का फल भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है । परमपुरुष भगवान् का वही परमपद है। महात्मा लोग उसी का शोकरहित अनन्त आनन्दस्वरुप ब्रम्ह के रूप में साक्षात्कार करते हैं। सयंमशील पुरुष उसी में अपने मन को सम्माहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघ रूप से विद्यमान होने के कारण जल के लिये कुआँ खोदने की कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करने वाले ज्ञान-साधनों को भी छोड़ देते हैं । समस्त कर्मों के फल भी भगवान् ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार जो शभ कर्म करता है, वह सब उन्हीं की प्रेरणा से होता है। इस शरीर में रहने वाले पंचभूतों के अलग-अलग हो जाने पर जब—यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहने वाला अजन्मा पुरुष आकाश के समान नष्ट नहीं होता । बेटा नारद! संकल्प से विश्व की रचना करने वाले षडैश्वर्य सम्पन्न श्रीहरि का मैंने तुम्हारे सामने संक्षेप से वर्णन किया। जो कुछ कार्य-कारण अथवा भाव-अभाव है, वह सब भगवान् से भिन्न नहीं है। फिर भी भगवान् तो इससे पृथक् भी हैं ही । भगवान् ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है। इसमें भगवान् की विभूतियों का संक्षिप्त वर्ना है। तुम इसका विस्तार करो । जिस प्रकार सबके आश्रय और सर्वस्वरुप भगवान् श्रीहरि में लोगों की प्रेममयी भक्ति हो, ऐसा निश्चय करके इसका वर्णन करो । जो पुरुष भगवान् की अचिन्त्य शक्ति माया का वर्णन या दूसरे के द्वारा किये हुए वर्णन का अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित्त माया से कभी मोहित नहीं होता ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-