श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 85 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः(85) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


श्रीभगवान् के द्वारा वसुदेवजी को ब्रम्हज्ञान का उपदेश तथा देवकी के छः पुत्रों को लौटा लाना श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसके बाद एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन प्रणाम करने के लिये माता-पिता के पास गये। प्रणाम कर लेने पर वसुदेवजी बड़े प्रेम से दोनों भाइयों का अभिनन्दन करके कहने लगे । वसुदेवजी ने बड़े-बड़े ऋषियों के मुँह से भगवान् की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास हो गया था की ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान् हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रों को प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा— ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत् के साक्षात् कारणस्वरुप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हो । इस जगत् के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत् में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो । इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारों से रहित परमात्मन्! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूप से प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूप में इसका पालन-पोषण कर रहे हो । क्रियाशक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत् की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य है, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अतः उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है। प्रभो! चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि की स्फुरणरूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारण शक्ति रूप से वृत्ति और गन्धरूप गुण—ये सब वास्तव में तुम्हीं हो । परमेश्वर! जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरुप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो! इन्द्रियशक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना—ये सब वायु की शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं । दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उस आश्रयभूत स्फोट—शब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नाद—पश्यन्ती, ओंकार—मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो । इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो! बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो । भूतों में उनका कारण तामस अहंकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहंकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्विक अहंकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी तुम्हीं हो । भगवन्! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में इत्ती निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण (मृत्तिका) रूप ही है—उसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूप से अविनाशी तत्त्व हो। वास्तव में वे सब तुम्हारे ही स्वरुप हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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