महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 72 श्लोक 19-35

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द्विसप्‍ततितम (72) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञापर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:द्विसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

‘आज आप सभी लोगों के मुख की कान्ति अप्रसन्‍न दिखायी दे रही है, इधर मैं अभिमन्‍यु को नहीं देख पाता हूँ और आप लोग भी मुझसे प्रसन्‍नतापूर्वक वार्तालाप नहीं कर रहे हैं ।‘मैंने सुना है कि आचार्य द्रोण ने चक्रव्‍यूह की रचना की थी । आप लोगों में से बालक अभिमन्‍यु के सिवा दूसरा कोई उस व्‍यूह का भेदन कर सकता था । ‘परंतु मैंने उसे उस व्‍यूह से निकलने का ढंग अभी नहीं बताया था । कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आप लोगों ने उस बालक को शत्रु के व्‍यूह में भेज दिया हो ? । शत्रुवीरों का संहार करने वाला महाधनुर्धर सुभद्रा कुमार अभिमन्‍यु युद्ध में शत्रुओं के उस व्‍यूह का अनेकों वार भेदन करके अन्‍त में वहीं मारा तो नहीं गया ? । ‘पर्वतों में उत्‍पन्‍न हुए सिंह के समान लाल नेत्रों वाले, श्रीकृष्‍णतुल्‍य पराक्रमी महाबाहु अभिमन्‍यु के विषय में आप लोग बतायें । वह युद्ध में किस प्रकार मारा गया ? । ‘इन्‍द्र के पौत्र तथा मुझे सदा प्रिय लगने वाले सुकुमार शरीर महाधनुर्धर अभिमन्‍यु के विषय में बताइये । वह युद्ध में कैसे मारा गया ? ।‘सुभद्रा और द्रोपदी के प्‍यारे पुत्र अभिमन्‍यु को, जो श्रीकृष्‍ण और माता कुन्‍ती का सदा दुलारा रहा है, किसने काल से मोहित होकर मारा है?।‘वृष्णिकुल के वीर महात्‍मा केशव के समान पराक्रमी, शास्‍त्रज्ञ और महत्‍वशाली अभिमन्‍यु युद्ध में किस प्रकार मारा गया है ? ।‘सुभद्रा के प्राणप्‍यारे शूरवीर पुत्र को, जिसको मैंने सदा लाड-प्‍यार किया है, यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोक चला जाऊँगा ।‘जिसके केशप्रान्‍त कोमल और घुँघराले थे, दोनों नेत्र मृगछौने के समान चंचल थे, जिसका पराक्रम मतवाले हाथी के समान और शरीर नूतन शालवृक्ष के समान ऊँचा था, जो मुसकराकर बातें करता था, जिसका मन शान्‍त था, जो सदा गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता था, बाल्‍यावस्‍था में भी जिसके पराक्रम की कोई तुलना नहीं थी, जो सदा प्रिय वचन बोलता और किसी से ईर्ष्‍या-द्वेष नहीं रखता था, जिसमें महान्‍ उत्‍साह भरा था, जिसकी भुजाएं बडी-बडी और दोनों नेत्र विकसित कमल के समान सुन्‍दर एवं विशाल थे, जो भक्‍तजनों पर दया करता, इन्द्रियों को वश में रखता और नीच पुरुषों का साथ कभी नहीं करता था, जो कृतज्ञ, ज्ञानवान्‍, अस्‍त्र-विद्या में पारंगत, युद्ध से मुँह न मोडने वाला, युद्ध का अभिनन्‍दन करने वाला तथा सदा शत्रुओं का भय बढाने वाला था, जो स्‍वजनों के प्रिय और हित में तत्‍पर तथा अपने पितृकुल की विजय चाहने वाला था, संग्राम में जिसे कभी घबराहट नहीं होती थी और जो शत्रु पर पहले प्रहार नहीं करता था, अपने उस पुत्र बालक अभिमन्‍यु को यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोक की राह लूँगा । ‘रथियों के गणना होते समय जो महारथी गिना गया था, जिसे युद्ध में मेरी अपेक्षा ड्यौढा समझा जाता था तथा अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाला जो तरुण वीर प्रद्युम्‍न को, श्रीकृष्‍ण को और भी सदैव प्रिय था, उस पुत्र को यदि मैं नहीं देखूँगा तो यमराज के लोक में चला जाऊँगा । ‘जिसकी नासिका, ललाट प्रान्‍त, नेत्र, भौंह तथा ओष्‍ठ - ये सभी परम सुन्‍दर थे, अभिमन्‍यु के उस सुख को न देखने पर मेरे हृदय में क्‍या शान्ति होगी ? ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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