गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 100

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

वह “निस्त्रेगुण्य , निद्र्वन्द्व, सदा अपनी सत्य सत्ता में प्रतिष्ठित , निर्योगक्षेम, आत्मवान्”[१] होता है। कारण मुक्त पुरूष का योग- क्षेम क्या है? जहां एक बार हम आत्मवान हुए वहां सब - कुछ तो प्राप्त हो गया, सब कुछ तो हमारा ही है। पर फिर भी आत्मवान् पुरूष कर्म से विरत नहीं होता। यही गीता की मौलिकता और शक्ति है कि पुरूष की इस स्थितिशील अवस्था का प्रतिपादन करके भी, प्रकृति पर पुरूष का श्रेष्ठतव बताकर भी, मुक्त पुरूष के लिये प्रकृति की साधरण क्रिया की निःसारता को दिखाकर भी वह उसे कर्म जारी रखने को कहती है, कर्म का उपदेश करती है और ऐसा करने के कारण गीता उस बड़े भारी दोष से बच जाती है, जो मात्र शान्तिकामी और वैरागी मतों में पाया जाता है, - यद्यपि आज वे इस दोष से बचने का प्रयत्न कर रहे हैं। “कर्म पर तेरा अधिकार है, पर केवल कर्म पर , कर्म के फल पर कदापि नहीं ; अपने कर्मो - कर्मो फलों की इच्छा करने वाला मुक्त बन और अकर्म में भी तेरी आसक्त् नहीं हो”[२]। इस बात से यह स्पष्ट है, कि यह कर्म वेदवादियों का वह कर्म नहीं है, जो फलविशेष की कामना से किया जता है , और न यह उस प्रकार का कर्म है, जिसका दावा सांसारिक या राजसी वृत्ति के कर्मी किया करते हैं और जो अशांत उद्योगी मन की संतुष्टि के लिये सदा किया जता है। “योगस्थ होकर कर्म कर , संग का त्याग करके ,सिद्धि - असिद्धि में सम होकर ; समत्व ही योग से अभिप्रेत है”[३]। यह प्रश्न उठता है, कि शुभ और अशुभ के आपेक्षिक विचार के कारण , पाप से भय और पुण्य के कठिन प्रयास के कारण क्या कर्म केवल दु:खदायी ही नहीं होता? परंतु वह मुक्त् पुरूष जिसने अपनी बुद्धि और संकल्प को भगवान् के साथ एक कर लिया है, वह इस द्वन्द्वमय संसार में भी शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों का परित्याग किये रहता है; क्योंकि वह शुभाशुभ के परे जो धर्म है ,जिसकी प्रतिष्ठा आत्मज्ञान की स्वाधीनता में है, उसमें ऊपर उठ जाता है। कहा जा सकता है कि ऐसे निष्काम कर्म मे तो कोई निश्चिता , कोई अमोघता, कोई लाभदायक प्रेरक - भाव, कोई विशाल या ओज- सृष्टि- सामथ्र्य नहीं हो सकता? ऐसा नहीं है; योगस्थ होकर किया जानेवाला कर्म न केवल उच्चतम प्रत्युत अत्यंत ज्ञानपूर्ण, सांसारिक विषयों के लिये भी अत्यंत शक्तिशाली और अत्यंत अमोघ होता है ; क्योंकि उसमें सब कर्मो के स्वामी भगवान् का ज्ञान और संकल्प भरा रहता है; “योग है, कर्म की कुशलता,” परंतु जीवन के लिये किया जानेवाला कर्म योगी को उसके महान ध्येय से दूर ले जाता है और यह बात तो सर्वसम्म्त ही है, कि योगी का ध्येय इस दुख- शोकमय मानव- जन्म के बंधन से छुटकारा पाना होता है?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.43
  2. 2.57
  3. 2.48

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