गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 179

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गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

वे विश्वात्मा परात्पर परमेश्वर की प्रकृति के समस्त कर्मो के स्वामी हैं। नैव्र्यक्तिक ब्रह्म में कर्मो का आधान करना तो कर्तृत्व- अभिमान से छुटकारा पाने का एक साधन मात्र है , पर हमारा लक्ष्य तो है अपने समस्त कर्मो को सर्वभूतमहेश्वर के अर्पण करना। ‘‘आत्मा के साथ अपनी चेतना का तादात्म्य करके , मुझमें सब कर्मो का संन्यास करके अपनी वैयक्तिक आशाओं और कामनाओं से तथा ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ‘ से मुक्त तथा विगतज्वर होकर युद्ध कर ,”१ कर्म कर , जगत् में मेरे संकल्प को कार्यन्वित कर। भगवान् ही अखिल कर्म का आरंभण , प्रेरण और निद्र्धारण करते हैं ; मानव - आत्मा ब्रह्म में नैव्यक्तिक भाव को प्राप्त होकर उनकी शक्ति का विशुद्ध और नीरव स्त्रोतमार्ग बनती है ; यही शक्ति प्रकृति में आकर दिव्य कर्म संपादन करती है। केवल ऐसे कर्म ही मुक्त पुरूष के कर्म हैं ; क्योंकि किसी कर्म में मुक्त पुरूष की कोई अपनी प्रवृत्ति नहीं होती ; केवल ऐसे कर्म ही सिद्ध कर्मयोगी के कर्म हैं। इन कर्मो का उदय मुक्त आत्मा से होता है और आत्मा में कोई विकार या संस्कार उत्पन्न किये बिना ही इनका लय हो जाता है , जैसे , अक्षर अगाध चित् - समुद्र में लहरें ऊपर - ही - ऊपर उठती हैं और फिर विलीन हो जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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