गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 236
[१]संसार - प्रेम तब आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित होकर इन्द्रियानुभाव से आत्मानुभव हो जाता है और वह ईश्वर - प्रेम की नींव पर प्रतिष्ठित रहता है और तब उस प्रेम में कोई भय , कोई देाष नहीं होता । निम्न प्रकृति से पीछे हटने के लिये संसार से भय और जुगुप्सा प्रायः आवश्यक हो सकते हैं, क्योंकि वास्तव में यह हमारा अपने अहंकार से भीत और जुगुप्सित होना है और अपने को जगत् में प्रतिबिंबित करना है। परंतु ईश्वर को जगत् में देखना निर्भय होना है , यह सब कुछ का ईश्वर की सत्ता में आलिंगन करना है; सब कुछ भगवद्रूप में देखने का अर्थ है किसी पदार्थ को नापसंद न करना या किसी से घृणा न करना, बल्कि जगत् में भगवान् से और भगवान् में जगत् से प्रेम करना। परंतु कम - से - कम निम्न प्रकृति के उन विषयों का तो परिहार करना और उनसे डरना ही होगा जिनसे ऊपर उठने के लिये योगी ने इतनी कड़ी साधना की थी? नहीं, यह भी नहीं; आत्मदर्शन की समता में सब कुछ का आलिंगन किया जाता है। भगवान् कहते हैं, ‘‘ हे अर्जुन , जो कोइ सब कुछ को आत्मा की तरह समभाव से देखता है चाहे वह दुःख हो या सुख , उसे मैं परम योगी मानता हूं।”[२] और, इससे यह अभिपे्रत नहीं है कि स्वयं योगी दूसरों के दुःख में ही क्यों न हो, अपने दुःखरहित आत्मानंद से गिर जायेगा और फिर से सांसारिक दुःख अनुभव करेगा, बल्कि यह कि दूसरों में उन द्वन्द्वों के खेल को देखकर , जिन्हें छोड़कर वह स्वयं ऊपर उठ चुका है।
वह सब कुछ आत्मवत् और सबमें अपनी आत्मा को, सबमें ईश्वर को देखेगा और इन चीजों के बाह्म रूपों या मुग्ध होकर केवल करूणा से उनकी मदद करने , उनका दुःख दूर करने , सब प्राणियों के कल्याण में अपने - आपको लगाने में, लोगों को आध्यात्मिक आनंद की ओर जाने में, जगत् को भगवान् की ओर अग्रसर करने के काम में प्रवृत्त होकर जितने दिन उसे इस जगत् में रहना है उतने दिन अपने जीवन को दिव्य जीवन बनाकर रहेगा। जो भगवतपे्रमी ऐसा कर सकता है, इस प्रकार सब कुछ का भगवान् के अदंर अलिंगन कर सकता है, निम्न प्रकृति और त्रिगुणात्मिका माया के सब कर्मो की ओर स्थिर होकर देख सकता और , बिना क्षुब्ध हुए तथा आध्यात्मिक ऐक्य की उचांई से मुग्ध या च्युत हुए बिना, भगवान् की अपनी दृष्टि की विशालता में स्वतंत्र भाव से रहते हुए , भागवत प्रकृति की शक्ति से मधुर , महान् और प्रकाशमय होकर उन कर्मो के अंदर और उन कर्मो पर क्रिया कर सकता है, उसको निःसंकोच परम योगी कहा जा सकता है। यथार्थ में उसीने सृष्टि का जीता है।गीता ने सर्वत्र वैसे ही यहां भी भक्ति को योग की पराकाष्ठा कहा है।”[३]गीता की शिक्षा का यही संपूर्ण सार - सर्वस्व कहा जा सकता है - जो सबमें स्थित भगवान् से प्रेम करता है
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