गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 237

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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

और जिसकी आत्मा भगवदैक्यभाव में प्रतिष्ठित है, वह चाहे कैसे भी रहता और कर्म करता हो , भगवान् में ही रहता और कर्म करता है। और, जब अर्जुन ने प्रश्न किया कि ऐसा कठिन काम, योग, मनुष्य के चंचल मन के लिये कैसे संभव हो सकता है तब भगवान् गुरू उसी बात पर विशेष जोर देने के लिये उसीका प्रसंग फिर से चलाते हैं और अंत में यही कहते हैं, ‘‘ योगी तपस्वी से श्रेष्ठ है, ज्ञानी से श्रेष्ठ है; कर्मी से श्रेष्ठ है; इसलिये हे अर्जुन , तू योगी बन ।”[१] योगी वह है जो कर्म से , ज्ञान से , तप से अथवा चाहे जिस तरह से हो केवल आत्मज्ञान के लिये आत्मज्ञान , केवल शक्ति के लिये शक्ति या केवल किसी चीज के लिये कोई चीज नहीं चाहता , बल्कि केवल भगवान् के साथ ऐक्य ही ढूंढता और पाता है;।
उसी ऐक्य में सब कुछ आ जाता है तथा सब कुछ अपने रूप से ऊपर उठकर परम भागवत अर्थ को प्राप्त हो जाता है। परंतु योगियों में भक्त ही सबसे श्रेष्ठ होता है। ‘‘ सब योगियों में वह योगी जो अपनी अंतरात्मा को मुझे सौंप देता है और श्रद्धा तथा प्रीति से मेरा भजन करता है, उसे मैं अपने साथ योग में सबसे अधिक युक्त समझता हूं।”[२]गीता के प्रथम षट्क का यही अंतिम वचन है और इसीमें बाकी जो कुछ अभी नहीं कहा गया है और जो कहीं भी पूर्णतया नहीं कहा गया है उसका बीज मौजूद है। वह सदा कुछ - कुछ रहस्यमय और गुह्म ही रहता है - परम अध्यात्मिक रहस्य, भगवत रहस्य।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.46
  2. 6.47

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