गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 239

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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

गुरू यदि अपना उपदेश यहीं समाप्त कर देते तो स्वयं अर्जुन यह आपत्ति कर सकता था कि ‘ आपने कामना और आसक्ति का नाश, समत्व, इन्द्रियों का दमन और मन का शमन , निष्काम निरहंकार कर्म , कर्म का यज्ञ - रूप से उत्सर्ग, बाह्म संन्यास से आंतर संन्यास का श्रेष्ठतव, इन सबके बारे में बहुत कुछ कहा , मैं इन सब बातों को विचार से तो समझता हूं, चाहे इन्हें आचरण में लाना कितना ही कठिन मालूम होता हो; परंतु आपने कर्म करते हुए गुणों से ऊपर उठने की बात भी कही है, और यह नहीं बताया कि गुण कैसे कार्य करते हैं, और जब तक मैं यह न जान लूं , तब तक गुणों का पता लगाना और उनसे ऊपर उठना मेरे लिये कठिन होगा। इसके अतिरिक्त आपने यह भी कहा है कि योग कैसे सबसे प्रधान अंग भक्ति है , फिर भी आपने कर्म और ज्ञान के बारे में तो बहुत कुछ कहा है, पर भक्ति के बारे में प्रायः कुछ भी नहीं कहा । और , फिर यह भक्ति , जो सबसे बड़ी चीज है, किसे अर्पण की जायेगी? अवश्य ही शांत निर्गुण ब्रह्म को नहीं बल्कि आपको , ईश्वर को। इसलिये अब आप मुझे यह बताइये कि आप क्या हैं , कौंन हैं, क्योंकि जैसे भक्ति आत्मज्ञान से भी बड़ी चीज है वैसे ही आप उस अक्षर ब्रह्म से बड़े हैं जो क्षर प्रकृति और कर्ममय संसार से उसी तरह बड़ा है जैसे ज्ञान कर्म से बड़ा है।
इन तीनों वस्तुओं में परस्पर क्या संबंध है? कर्म , ज्ञान और भगवद्भक्ति में परस्पर क्या संबंध है? प्रकृतिस्थ पुरूष, अक्षर पुरूष और वह वह जो सबका अव्यय आत्मा होने के साथ - साथ समस्त ज्ञान , भक्ति और कर्म का प्रभु , परमेश्वर है, जो यहां इस महायुद्ध और भीषण रक्तपात में मेरे साथ है, इस घोर भयानक कर्म के रथ में मेरा सारथी है इन तीनों में परस्पर क्या संबंध है?” इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिये गीता के शेष अध्याय लिखे गये हैं और और विचार द्वारा पूर्ण मीमांसा प्रस्तुत करते समय इनका विचार और समाधान तुरंत करना जरूरी है। वास्तविक साधन क्षेत्र में क्रमशः आगे बढ़ना होता है और बहुत - सी बातों को, याहंतक कि बड़ी - बड़ी बातों को भी समय आने पर अपने - आप उठने और आध्यात्मिक अनुभव से आप ही सुलझने के लिये छोड़ रखना पड़ता है। एक हदतक गीता ने अनुभव की इस वर्तुल गति का अनुसरण किया है और पहले कर्म और ज्ञान की एक विशाल प्राथमिक भित्ति का निर्माण कर उसमें एक ऐसी चीज रख दी है जो भक्ति तक और महत्तर ज्ञान की ओर ले जाती है, पर अभी वहांतक पहुंची नहीं है। प्रथम छः अध्याय हमें इसी भित्ति पर ला छोड़ते हैं।अब हम जरा रूककर इस बात पर विचार करें कि जिस मूल प्रश्न को लेकर गीता का उपक्रम हुआ, उसका समाधन इन अध्यायों में कहां तक हुआ है। यहां फिर यह कह देना अच्छा रहेगा कि स्वयं उस प्रश्न में कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके लिये संपूर्ण विश्व के स्वरूप का और सामान्य जीवन के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन की प्रतिष्ठा का विचार आवश्यक होता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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