गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 240
उपस्थित प्रश्न का विचार व्यावहारिक या नैतिक रूप से या बौद्धिक दृष्टि से अथवा आदर्शवाद की दृष्टि से या इन सब दृष्टियों से एक साथ ही किया जा सकता था; और यह वस्तुतः कठिनाई को हल करने की आधुनिक पद्धति होती । यहां यह अपने - आपमें सबसे पहले यही सवाल उपस्थित करता है कि अर्जुन किसी विधान के द्वारा अपने कर्तव्याकर्तव्य का निद्र्धारण करे? क्या वह इस नैतिक भावना के अनुसार चले और समझे कि जन - संहार तो पाप है अथवा सार्वजनिक और सामाजिक कर्तव्य की वैसी ही नैतिक भावना के अनुसार चले और न्याय की रक्षा करे जैसा कि सभी महान् स्वभाववाले मनुष्यों से उनकी विवके - बुद्धि आशा रखती है, अर्थात् अन्याय और अत्याचार का पक्ष लेने वाली सशस्त्र शक्तियों का विरोध करे? यही प्रश्न इस समय , इस घड़ी हमारे सामने भी उठा है और इसका समाधान हम अनेकानेक प्रकार से कर सकते हैं, और कर ही रहे हैं , किंतु ये सब समाधान हमारे साधारण जीवन और हमारे साधारण मानव मन के दृष्टि - बिन्दु से ही होंगे। समाधान करते समय प्रश्न का यह रूप हो सकता है कि क्या यह विवेक - बुद्धि और समाज तथा राज्य के प्रति अपने कर्तव्य के बीच , स्थित आदर्श तथा व्यावहारिक नीति के बीच चुनाव का प्रश्न है; क्या हम आत्मबल पर विश्वास करें या इस कड़वी बात को मानें कि जीवन अभी संपूर्ण आत्मरूप नहीं हुआ है और न्याय का पक्ष लेकर भौतिक संघर्ष में अस्त्र धारण करना कभी - कभी अनिवार्य हो जाता है?
जो भी हो, ये सब समाधान अपनी - अपनी बुद्धि , स्वभाव और हृदय के अनुरूप होंगें ये हमारे वैयक्तिक दृष्टिकोण पर निर्भर होंगे और इनका अधिक - से - अधिक यही लाभ होगा कि हम अपने ही तरीके से अपने सामने आयी हुई कठिनाई का मुकाबला करें, अपने ही तरीके से इसलिये कि ये हमारे स्वभाव के तथा हमारे नैतिक और बौद्धिक विकास की अवस्था के, हमें जो प्रकाश अभी प्राप्त है उसे हम अच्छे - से - अच्छे रूप में जो कुछ देख सकते और कर सकते हैं उसके अनुरूप होंगे ; पर इससे अंतिम समाधान नहीं होगा। इसका कारण यह है कि यह सब हमारे साधारण मन का ही समाधन होगा, उस मन का जो हमारी सत्ता की विविध वृत्तियों का गोरखधंधा है और जो इन विविध वृत्तियों मे से किसी - किसी को चुन लेता या उन सबको मिला - जुलाकर अपना काम चला भी लेता है; यह हमारी युक्ति , हमारी नैतिक सत्ता, हमारी सक्रिय प्रकृति की आवश्यकताओं , हमारी सहज प्राणवृत्तियों , हमारी भावावेगमयी सत्ता और उन विरली वृत्तियों में भी, जिन्हें हम अंतरात्मा की सहज - स्फुरणा या हृत्पुरूष की अभिरूचि कह सकते हैं, कामचलाऊ मेल बैठा सकता है। गीता की यह मान्यता है कि इस तरह से कोई परम निरपेक्ष समाधन नहीं, बल्कि तात्कालिक, व्यावहारिक समाधान ही हो सकता है।
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