गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 247
इसलिये हमें मन को स्थिर करना सीखना होगा। हमें वह निरपेक्ष शांति और स्थिरता प्राप्त करनी होगी जिसमें पहुंचकर हम उस अंतः स्थित स्थिर, अचल, आनंदमय आत्मा को जान सकें जो सदा बाह्म पदार्थो के स्पर्शो से अक्षत, अक्षुब्ध रहती है , जो अपने - आपमें पूर्ण रहती और चिरंतन तृप्ति लाभ करती है।यह आत्मा ही हमारा स्वतः सिद्ध स्वरूप है। यह हमारे वैयक्तिक जीवन से बद्ध नहीं है। यह सब भूतों में एक , सबमें व्यापाक, सबमें सम, अपनी अनंत सत्ता से अखिल विश्वकर्म को धारण करने वाली है, यह देशकाल की परिच्छिन्नता से परिच्छिन्न होने वाली नहीं है । प्रकृति और व्यष्टि के परिवर्तानों से परिवर्तित होने वाली नहीं है। जब हमें अपने अंदर इस आत्मा के दर्शन होते हैं, जब हमें इसकी शांति और नीरवता का अनुभव होता है , तब हम इसमें सवंर्द्धित हो सकते हैं; हमारा अंतःपुरूष जो अभी प्रकृति में निमज्जित होकर निम्नतर अवस्था में है उसे आत्मा में पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं। हम यह उन वस्तुओं की शक्ति से कर सकते हैं जो हमें प्राप्त हुई हैं- स्थिरता, समता, निर्विकार नैव्र्यक्तिकता। क्योंकि ज्यों - ज्यों हम इन चीजों में विकसित होते हैं , उन्हें अपनी पूर्णता तक पहुंचाते हैं और अपनी सारी प्रकृति को इनके अधीन कर देते हैं,।
तयों - त्यों हम इस स्थिर सम निर्विकार, नैवर्यक्तिक , सर्वव्यापक आत्मा के स्वरूप में विकसित होते जाते हैं। हमारी इन्द्रियां उसी नीरवता में जा पहुंचती हैं और जगत् के स्पर्शो को महती शांति के साथ ग्रहण करती हैं; हमारा मन उसी नीरवता को प्राप्त होकर शांत , विराट् साक्षी बन जाता है; और हमारा अहंकार इसी नैवर्यक्तिक सत्ता में विलीन हो जाता है। तब हम सभी चीजें उसी आत्मा में देखते हैं जो हम स्वयं बन चुके हैं; और हम इस आत्मा को सबके अंदर देखते हैं; हम सब भूतों के साथ उनकी आत्मसत्ता में एकीभूत हो जाते हैं। इस अहंभावशून्य शांति और नैव्र्यक्तिक में रहते हुए हम जो कर्म करते हैं वे हमारे कर्म नहीं रह जाते , वे अब अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें किसी भी प्रकार से न तो बांध सकते हैं न कोई पीड़ा ही पहुंचा सकते हैं। प्रकृति और उसके गुण अब भी अपने कर्म का जाल बुना करते हैं, पर उनसे हमारी दुःखरहित स्वतःसिद्ध शांति भंग नहीं होती। सब कुछ उसी एक सम विराट् ब्रह्म में समर्पित होता है।परंतु यहां दो कठिनाइयां उपस्थित होती हैं। एक यह कि इस शांत अक्षर आत्मा और प्रकृति के कर्म में एक विरोध प्रतीत होता है। जब हम इस अक्षर आत्मसत्ता में एक बार प्रवेश कर चुके तब फिर कर्म का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है और वह जारी कैसे रह सकता है? उसमें कर्म करने की वह इच्छा ही कहां है जिससे हमारी प्रकृति का कर्म संभव हो सके?
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