गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 248

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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

यदि हम सांख्य मत के अनुसार यह कहें कि इच्छा प्रकृति में होती है, पुरूष में नहीं, तब भी प्रकृति में कर्म के पीछे कोई - न - कोई प्रेरकभाव तो होना ही चाहिये और उसमें वह शक्ति भी होनी चाहिये जिससे वह आत्मा को रस, अहंकार और आसक्ति के द्वारा अपने कर्मो में खींच सके, और जब इन चीजों का आत्मचैतन्य में प्रतिबिंबित होना ही बंद हो गया तो प्रकृति की वह शक्ति भी जाती रही , और उसके साथ - साथ कर्म करने का प्रेरकभाव भी जाता रहा। परंतु गीता इस मत को स्वीकार नहीं करती , जो एक विराट् पुरूष के बजाय अनेक पुरूषों का होना आवश्यक ठहराता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाये तो यह बात समझ में न आ सकेगी कि किसी पुरूष की पृथक् आत्मानुभूति और मोक्ष कैसे संभव है जब कि अन्य लाखों - करोड़ों पुरूष बद्ध ही पडे़ हैं। प्रकृति कोई पृथक् तत्व नहीं बल्कि परमेश्वर की ही शक्ति है जो विश्वरचना में प्रवृत्त होती है। परंतु परमेश्वर यदि केवल यही अक्षर पुरूष पुरूष हैं और व्यष्टि - पुरूष केवल कोई ऐसी चीज है जो उसमें से निकलकर उस शक्ति के साथ इस सृष्टि में आया है , जो जिस क्षण व्यष्टि - पुरूष लौटकर आत्मा में स्थित होगा उसी क्षण सारी सृष्टिक्रिया बंद हो जायेगी और रह जायेगी केवल परम एकता और परम निस्तब्धता। दूसरी बात यह है कि यदि अब भी किसी अंचत्यि रूप से कर्म जारी रहे तो भी आत्मा जब सब पदार्थों के लिये सम है तब कर्म हों या न हों और हों तो चाहें जेसे हों , इसका कोई महत्व नहीं ।
ऐसी अवस्था में यह भयंकर सत्यानासी कर्म क्यों, यह रथ , यह युद्ध , यह योद्धा, यह भगवान् सारथी किसलिये? गीता इसका उत्तर यह बतलाकर देती है कि परमेश्वर अक्षर पुरूष से भी महान् हैं, अधिक व्यापक हैं, वे साथ - साथ यह आत्मा भी हैं और प्रकृति में होने वाले कर्म के अधीश्वर भी। परंतु वे अक्षर ब्रह्म की सनातनी अचलता, समता, कर्म और व्यष्टिभाव से अतीत श्रेष्ठता में स्थित रहते हुए प्रकृति के कार्मो का संचालन करते हैं। हम कह सकते हैं कि यही उनकी सत्ता की वह स्थिति है, जिसमें से कर्म संचालन करते हैं ,और जैसे - जैसे हम इस स्थिति में सवंर्धित होते हैं वेसे - वैसे हम उन्हींकी सत्ता और दिव्य कर्मो की स्थिति को प्राप्त होते हैं। इसी स्थिति से वे अपनी सत्ता की प्रकृतिगत इच्छा और शक्ति के रूप में निकल आते हैं, अपने - आपको सब भूतों में प्रकट करते हैं, जगत् में मनुष्यरूप से जन्म लेते हैं, सब मनुष्यों के हृदयों में निवास करते हैं, अवताररूप से अपने - आपको अभिव्यक्त करते हैं, (यही मनुष्य के अंदर उनका दिव्य जन्म है); और मनुष्य ज्यों - ज्यों उनकी सत्त में सवंर्धित होता है, त्यों - त्यों वह भी इस दिव्य जन्म को प्राप्त होता । इन्हीं प्रभु के लिये जो हमारे कर्मों के अधीश्वर हैं, यज्ञ के तौर पर कम्र करने होंगे और अपने - आपको आत्मस्वरूप में उन्नत करते हुए हमें अपनी सत्ता में उनके साथ एकत्व लाभ करना होगा और अपने व्यष्टिभाव को इस तरह देखना होगा कि यह उन्हींका प्रकृति में आंशिक प्राकटय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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