गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 249
सत्ता में उनके साथ ऐक्य लाभ करने से हम जगत् के सब प्राणियों के साथ एक हो जाते हैं और दिव्य कर्म करने लगते हैं, अपने कर्म के तौर पर नहीं बल्कि लोक - संरक्षण और लोकसग्रंह के लिये हमारे द्वारा होने वाली उन्हींकी क्रिया के तौर पर। असल में यही अतयंत आवश्यक बात है और इसे करते ही अर्जुन के आगे आने वाली सब कठिनाइयां लुप्त हो जायेगीं। पश्न तब हमारे वैयक्तिक कर्म का नहीं रह जाता , क्योंकि हमारा व्यक्तित्व जिससे बनता है यह तो केवल इस लौकिक जीवन से संबंध रखने वाली और इसलिये गौण चीज रह जाती है फिर जगत् में हमारे द्वारा भगवदच्छा के कार्यन्वित होने का प्रश्न ही रहा जाता है। उसे समझने के लिये हमें यह जानना होगा कि ये परमेश्वर स्वयं क्या हैं ,प्रकृति के अंदर इनका क्या स्वरूप है, प्रकृति कर्म परंपरा क्या है और उसका लक्ष्य क्या है और प्रकृतिस्थ पुरूष और इन परमेश्वर के बीच आंतरिक संबंध कैसा है, इसे समझने के लिये ज्ञानयुक्त भक्ति ही आधार है। इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण गीता के शेष अध्यायों का विषय है।
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