गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 266

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

इस सृष्टि के सब प्राणी संमोह को प्राप्त होते हैं।”[१] यही वह अज्ञान , वह अहंभाव है जो सर्वत्र भगवान् को देखने और पकड़ने में असमर्थ रहता है , क्योंकि वह प्रकृति के द्वन्द्वों को ही देखा करता और सदा अपनी पृथक् वैयक्तिक सत्ता और उसकी अनुकूल और प्रतिकूल वृत्तियों में उलझा रहता है। इस चक्कर से छूटने के लिये हमारे कर्म में सबसे पहली जरूरी बात यह है कि हम प्राणमय अहंकार के पाप से, काम - क्रोध की आग से, रजोगुणी इच्छा के कोलाहल से बाहर निकल आयें; यह अपने नैतिक पुरूष की सात्विक प्रेरणा और संयम को दृढ़ करने से ही हो सकता है । जब यह काम हो चुकता है1, अथवा यह कहिये कि जब यह काम होता रहता है तभी यह जरूरी होता है कि द्वन्द्वों के ऊपर उठकर निव्र्यक्तिक, सम, अक्षर ब्रह्म के साथ एक , सब भूतों के साथ एकीभूत आत्मा होने के अभ्यास किया जाये क्योंकि सात्विक वृत्ति के एक हद तक बढ़ने के बाद ही विलक्षण शांति , समता और त्रिगुणातिक्रमण की योग्यता उत्तरोत्तर बढ़ने लगती है। आत्मस्वरूप को प्राप्त होने के इस अभ्यासक्रम से शुद्धि की पूर्णता होती है। पर जिस समय यह किया जा रहा हो, जब जीव इस प्रकार आत्मज्ञान की विशालता की अधिकाधिक प्राप्त हो रहा हो, उसी समय उसके लिये अपना भक्तिभाव भी बढ़ाना आवश्यक होता है।
क्योंकि उसे केवल समता की विशालता में स्थित होकर ही कर्म नहीं करना है, बल्कि भगवान् के लिये यज्ञकर्म भी करना है, उन सर्वभूतस्थित भगवान् के लिये जिन्हें वह अभी पूर्ण रूप से नहीं जानता , पर पीछे जानेगा, समग्र रूप से, समग्रं माम् जानेगा जब उसे सर्वत्र और सब भूतों में उसी एक आत्मा के सतत दर्शन होंगे। समत्व की स्थिति और सर्वत्र एक आत्मा को देखने की दृष्टि जहां एक बाद पूर्ण रूप से प्राप्त हो गयी , जहां इस प्रकार द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ताः हो गये , वहां परा भक्ति, भगवान् के प्रति सर्वभावेन प्रेमभक्ति ही जीव का संपूर्ण और एकमात्र धर्म बन जाती है। अन्य सभी धर्म उस एक शरणगति में मिल जाते हैं। तब जीव इस भक्ति में तथा अपनी संपूर्ण सत्ता, ज्ञान और कर्म के आत्मोत्सर्ग के व्रत मे दृढ़ हो जाता है; क्योंकि अब उसे सबके जन्म के मूल कारण भगवान् का सिद्ध, समग्र और एकीभाव उत्पन्न करने वाला ज्ञान अपनी सत्ता और कर्म के सृदृढ़ आधार और स्वतः सिद्ध; नींव के रूप से प्राप्त होता है।सामान्य दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञान और निव्र्यक्तिक भाव प्राप्त हो चुकने के पश्चात् जीव का भक्ति की ओर लौट आना या चित्त की वृत्तियों का बना रहना जीव - दशा में लौट आना मालूम हो सकता है। क्योंकि भक्ति का प्रवर्तक भाव परम पुरूष और विश्वात्मा की प्रति व्यष्टि - जीव का प्रेम और पूज्यभाव ही हुआ करता है, अतः भक्ति में व्यक्तितत्व का भाव, यहां तक कि वह उसका आधार हुआ करता है। परंतु यह आपत्ति गीता की दृष्टि में जरा भी नहीं आ सकती, क्योंकि गीता का लक्ष्य नैष्कम्र्य को प्राप्त होना और सनातन निव्र्यक्तिक सत्ता में लीन हो जाना नहीं , प्रत्युत सर्वात्मभाव से पुरूषोत्तम के साथ एक होना है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.28

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