गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 290

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

संपूर्ण मोक्ष प्रदान करने वाले योग की पद्धति में यहीं भक्ति का स्थान आता है। यह उस वस्तु की उपासना और उसकी ओर अपना हृदय लगाना है जो अक्षर ब्रह्म या क्षर प्रकृति से महान् है। संपूर्ण ज्ञान यहां पूजा - अर्चा बन जाता है और सारे कर्म भी पूजा- अर्चा ही बन जाते हैं। इस पूजा में प्रकृति के कर्म और आत्मा की मुक्ति स्थिति एक होकर परमेश्वर की ओर उठने की शक्ति बन जाते हैं। परामुक्ति अर्थात् इन निम्न प्रकृति से निकलकर उस परब्रह्म - भाव को प्राप्त होना जीव का निर्वाण (जीवज्योति का बुझ जाना) नहीं है , केवल उसके अहंकार का बुझ जाना है , बल्कि हमारे ज्ञान - कर्म - भक्तियुत्त जीव - भाव का इस विश्व के अंदर बंधकर नहीं , किंतु इस बंधन से निकलकर अपनी विश्वातीत सत्ता में स्थित होना है , जीव की यह परिपूर्णता है , नाशा नहीं।
अर्जुन की बुद्धि को यह ज्ञान अच्छी तरह स्पष्ट कर देने के लिये भगवान् सर्वप्रथम दो अवशिष्ट शंकाओं का समाधान कर देते हैं - एक शंका है निव्र्यक्तिक ब्रह्म और मानव जीव के बीच की असंगति के संबंध में और दूसरी पुरूष और प्रकृति के बीच की अंसगति के बंबंध में। ये दो असंगतियां जबतक बनी हैं तबतक प्रकृति और मनुष्य में स्थित परमेश्वर की सत्ता छिपी ही रह जाती है और बुद्धि विसंगत और अविश्वसनीय प्रतीत होती है। प्रकृति को त्रिगुण का अचेतन बंधन मात्र कहा गया है और जीव को उस बंधन में बंधा हुआ एक अहंभवापनन प्राणी। परंतु प्रकति और पुरूष की यही सारी मीमांसा हो तो वे दोनों न तो दिव्य है न हो सकते हैं। उस हालत में प्रकृति , जो अज्ञ और जड़ हैं, ईश्वर की कोई शक्ति नहीं हो सकती ; क्योंकि जो ईश्वरीय शक्ति अपनी क्रिया में स्वच्छंद होगी, उसका मूल आध्यात्मिक होगा और उसकी महत्ता भी आध्यात्मिक ही होगी। इसी प्रकार , जीव भी जो प्रकृति में बंधा , अहंकारयुक्त और केवल मनोमय , प्राणमय और अन्नमय है , भगवान का अंश नहीं हो सकता न स्वयं कोई अप्राकृत पुरूष ही ; क्योंकि ऐसा ईश्वर - अंशभूत जीवात्मा होना उसका तभी बन सकता है जब वह स्वयं भगवत्स्वभाववाला हो , मुक्त , आत्म - स्वरूप , स्वतःप्रवृत्त और प्रवर्धमान , स्वतःसिद्ध , मन - प्राण- शरीर से ऊध्र्व में स्थित हो। इन असंगतियों से उत्पन्न होने वाली देानों कठिनाइयों और आवरणों को सत्य की एक प्रकाशमय किरण ने हटा दिया है। जड़ प्रकृति केवल एक अपर सत्य है , अपरा प्रकृति के कार्य की एक पद्धतिमात्र है। इससे श्रेष्ठ एक और प्रकृति है और वह आध्यात्कि है और वही हमारे वैयक्तिक आत्मस्वरूप का स्वभाव है , हमारा वास्तविक व्यक्तितव है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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