गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 294
गीता अब परम और समग्र रहस्य को, उस एकमात्र ध्येय और सत्य को जिसमें पूर्णता - सिद्धि तथ मुक्ति के साधक को रहना सीखना होगा, तथा उसके सब आध्यात्मिक अंगों और उनके समस्त व्यापारियों की पूर्णता- सिद्धि के एकमात्र विधान को खोलकर प्रकट करना चाहती है। यह परम रहस्य है उन परात्पर परमेश्वर का स्वरूपरहस्य जो समग्र हैं और सर्वत्र हैं , पर जगत् तथा उसके नाना नामरूपों से इतने महत्तर और इतर हैं कि यहां की किसी वस्तु में वे नहीं समा सकते , कोई वस्तु उन्हें वास्तविक रूप में प्रकट नहीं कर सकती और न कोई भाषा ही , जो दिशा और काल से परिमित पदार्थों के रूपों और उनके परस्पर संबंधों से ही निर्मित हुआ करती है , उनके अचिंतनीय स्वरूप को किसी प्रकार लक्षित करा सकती है। फलतः हमारी पूर्णता - सिद्धि का विधान है अपनी संपूर्ण प्रकृति के द्वारा उनका यजन - पूजन जो उसके मूल और उसके स्वामी हैं और उन्हींको इसका आत्मसमर्पण । हमारा एकमात्र परम मार्ग यही है कि इस जगत् में हमारी जो कुछ सत्ता है , केवल उसका कोई यह या वह अंश नहीं , बल्कि सब प्रकार से वह उन सनातन पुरूष की ओर ले जानेवाला मात्र एक कर्म बना दी जाये। ऐश्वर योग की शक्ति और रहस्यमयी कृति के द्वारा हम लोग उनकी अनिर्वचनीय गुह्मतिगुह्म स्थिति से निकल कर प्राकृत पदार्थों की इस बद्ध दशा में आ गये हैं। अब उसी ऐश्वर योग की उल्टी गति से हमें इस बाह्म प्रकृति की सीमाओं को पार करना होगा और उस महत्तर चैतन्य को फिर से प्राप्त होना होगा जिसके प्राप्त होने से हम परमेश्वर और परम सनातन तत्व में रह सकते हैं।
परमेश्वर की परा सत्ता अभिव्यक्ति के परे है ; उनकी यथार्थ सनातनी मूर्ति जड़ शरीर में प्रकट नहीं होती , वह ‘‘ अचिनत्यरूप ” है। हम जो कुछ देखते हैं वह केवल एक स्वरचित रूप है, भगवान् का सनातन स्वरूप नहीं। जगत् से भिन्न कोई और या कुछ और भी है , जो अकथ, अचिंत्य, अनंत भगवत्तत्व है जो अनंतविषयक हमारी व्यापक - से व्यापक या सूक्ष्मतिसूक्ष्म भावनाओं से प्राप्त हो सकने वाले किसी भी आभास के सर्वथा परे है। यह नानाविध पदार्थो का बाना जिसे हम जगत् नाम से पुकारते हैं , अनेकविध गतियों का एक महान् जोड़ है जिसकी हम कोई स्थायी वस्तु , कोई ध्रुव पद , कोई समतल आधारभूमि और विश्व के नाभि - केन्द्र के ढूंढ़ने का व्यर्थ ही प्रयास किया करते हैं। उसे इसी महतो महीयान् अनंत ने अपनी अनिर्वचनीय विश्वातीत रहस्यमयी शक्ति से बुन रखा है, रूप दिया है और फैलाया है। इसकी मूल भित्ति है
एक आत्मनिरूपणक्रिया जो स्वयं अव्यक्त और अचिंत्य है। यह संभूति सा समूह जो प्रतिक्षण बदलता और चलता रहता है , ये सब जीव , ये सारे चराचर प्राणी , पदार्थ , सांस लेने और जीनेवाले रूप अपने अंदर व्यष्टि रूप से या समष्टि रूप से भी उन भगवान् को नहीं समा सकते । अर्थात् वे उनमें नहीं हैं ; बल्कि भूत ही उनके अंदर हैं, भूत ही उनके अंदर जीते, चलते और उन्हींसे अपने स्वरूप का सत्य ग्रहण करते हैं ; भूत उनकी संभूति हैं और वे उनकी आत्मसत्ता हैं।[१]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।9.4