गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 298

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

अथवा सत्ता का केवल एक ऐसा प्रतीक या संकेत हो सकता है जिससे हम उनके साथ अपने विशिष्ट संबंध जोड़ते चलें और क्रमशः उन्हें जानते जायें। पर इसके विपरीत , हमें एक ऐसा प्रत्यक्ष आत्मानुभव हो सकता है जिसमें हम सब पदार्थो को भगवान् ही देखें , केवल उस ब्रह्म ही को नहीं जो इस जगत् और इसके अंसख्य प्राणियों में अक्षर - रूप में विराजते हैं , बल्कि यह सब जो कुछ अंदर - बाहर समस्त भूतभाव है उसे भी भगवद्रूप में ही देखें । तब यही प्रत्यक्ष होता है कि यह सब जो कुछ है भगवत्सत्ता है और इस रूप में हमारे अंदर और अखिल ब्रह्मांड के अंदर भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं । यदि यह अनुभूति एकदेशीय हुई तो ‘ सर्वेश्वरवादी ’ साक्षात्कार होता है उन सर्वमय हरि का जो सर्व हैं ; पर यह सर्वेश्वरवादी दर्शन केवल आंशिक दर्शन ही हैं। यह सारा संसार - विस्तार है वह सर्व नहीं है जो कि आत्मतत्व या ब्रह्म है , कोई सनातन वस्तुतत्व है जो संसार से बड़ा है और उसीसे और उसी से संसार की सत्ता बनती है।
विश्व - ब्रह्मांड ही तत्त्वतः संपूर्ण भगवत्तत्व नहीं , बल्कि यह उसका केवल एक आत्माविर्भाव है , आत्मसत्ता की एक सच्ची पर गौण क्रिया है। ये सारे आध्यात्मिक अनुभव पहली दृष्टि में चाहै कितने ही परस्पर भिन्न या विरूद्ध हों , फिर भी इनका सामंजस्य हो सकता है यदि हम एकदेशीय बुद्धि से किसी एक पर ही जोर न दें , बल्कि इस सीधे - सादे सरल सत्य को समझ लें कि भगवत्तत्व विश्वब्रह्मांड की सत्ता से कोई महान् वस्तु है , परंतु रि भी सारा विश्व और विश्व के सारे भिन्न - भिन्न पदार्थ भगवद्रूप ही हैं , और कुछ नहीं- हम कह सकते हैं कि वे भगवान् के ही द्योतक हैं। अवश्य ही भगवान् इन रूपों के किसी अंश में या इनके समुच्चय में पूर्णतया प्रकट नहीं हैं तथापि से रूप हैं उनके ही सूचक । यदि ये भगवत्सत्ता की ही कोई चीज न होते , बल्कि उससे भिन्न कोई दूसरी ही चीज होते तो ये भगवान् के सूचक न हो सकते । सत्यस्वरूप या सत्तत्व भगवान् ही हैं ; और ये रूप तो उन्हींके अभिव्यंजक सत्तत्व हैं।[१] वासुदेव सर्वमिति का यही अभिप्राय है , यह सारा जगत् जो कुछ है भगवान् हैं , इस जगत में जो कुछ है और इस जगत से जो कुछ अधिक है वह भी भगवान् हैं ।गीता प्रथमतः भगवान् की विश्वातीत सत्ता की ओर विशेष ध्यान दिलाती है। क्योंकि , यदि ऐसा न किया जाये तो मन - बुद्धि अपने परम ध्येय को न जानेगी।[२]निरपेक्ष सत्य के सामने चाहै ये हमें अपेक्षाकृत असत् से ही प्रतीत होत हों , शंकरायार्य के मायावाद को उसके तार्किक आधार से अलग करके आध्यात्मिक अनुभति की दृष्टि से देखा जाये तो वह इसी सापेक्ष असत् का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मात्र प्रतीत होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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