गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 299
मन - बुद्धि के परे इस तरह की कोई उलझन नहीं रहती क्योंकि वहां ऐसी कोई उलझन कभी थी नहीं। वहां , विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और दर्शनों या योगशास्त्रों को आधारभूत पृथक् - पृथक् अनुभूतियों का कुछ दूसरा ही रूप हो सकता है , उनसे निकलनेवाले विभिन्न बौद्धिक सिंद्धात छूट जाते हैं और उनका समन्वय हो जाता है और जब ये अपनी उच्चतम समान प्रगाढ़ता को प्राप्त होते हैं तो अतिमानसिक अनंत में इनका एकीकरण होता है।और विश्वगत सत्ता की ओर मुड़ी रहे गी अथवा जगत् में स्थित भगवान् की किसी आंशिक अनुभूति में ही आसक्त हुई अटकी रहे गी। इसके अनंतर गीता भगवान् की उस विश्वसत्ता पर जोर देती है जिसमें सब पदार्थ और प्राणी जीते और कर्म करते हैं । कारण जागतिक प्रयास का यही औचित्य है और वही वह विराट् आध्यात्मिक आत्मसंवित् है जिसमें भगवान् अपने - आपको काल - पुरूष के रूप में देखते हुए अपना जगत्कर्म करते हैं । इसके बाद गीता ने भगवान् को मान - शरीरनिवासी के रूप में ग्रहण करने की बात विशेष गंभीर आग्रह के साथ कही है । क्योंकि , भगवान् सब भूतों में अंतर्यामी रूप से निवास करते ही हैं , और यदि अंतःस्थित भगवान् को न माना जाये तो न केवल वैयक्तिक जीवन का गुप्त भागवत अभिप्राय समझ में न आयेगा , अपनी परम आध्यात्मिक भवितव्यता की ओर हमारी जो प्रवृत्ति है उसकी एक सबसे बड़ी शक्ति ही नष्ट न होगी , बल्कि मानव आत्माओं के परस्पर - संबंधी भी क्षुद्र , अतिसीमित और अहंभावापन्न ही होंगे ।
अतं में , गीता ने विस्तार के यह बतलाया है कि संसार के सब पदार्थों में भगवान् का ही प्राकटय हो रहा है और इन सब पदार्थो का मूल उन्हीं एक भगवान् की ही प्रकृति , शक्ति और ज्योति है , क्योंकि सब पदार्थों को इस रूप में देखना भी भगवान् का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अत्यंत आवश्यक है ; इसी पर प्रतिष्ठित है समस्त भाव और समस्त प्रकृति का भगवान् की ओर पूर्ण रूप से मुड़ना , जगत् में भगवत शक्ति के कर्मो का मनुष्य के द्वारा स्वीकार किया जाना और उसके मन और बुद्धि का उस भगवत्कर्म के सांचे में ढल सकना जिसका आरंभ परम से होता है , हैतु जागतिक होता है और जो जीव से होकर जगत् को प्राप्त होता है। तात्पर्य , परम पुरूष परमेश्वर , विश्वचेतनातीत अक्षर आत्मा , मानव आधार में स्थित व्यष्टि - ईश्वर और विश्व - प्रकृति तथा उसके सब कर्मों और प्राणियों में गुप्त रूप से चैतन्यस्वरूप अथवा अंशतः आविर्भूत ईश्वर सब एक ही भगवान् हैं । परंतु इस एक ही भगवत्सत्ता के ये जो विभिन्न भाव हैं इनमें से किसी भी एक भाव को जो यथार्थ वर्णन हम पूर्ण विश्वास के साथ कर सकते हैं उसे जब भगवत्सत्ता के अन्य भावों पर घटाने का प्रयत्न करते हैं तब वह वर्णन उलट जाता या उसका अभिप्राय बदल जाता है । जैसे भगवान् ईश्वर हैं , पर इसलिये उनके उस ईश्वरत्व और प्रभुत्व को हम भगवत्सत्ता के इन चारों ही क्षेत्रों पर एक - सा , बिना किसी परिवर्तन के , यूं ही नहीं घटा सकते ।
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