गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 302

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

वास्तव में यहां जो कुछ है , सब आध्यात्मिक सहास्थिति , सरूपत्व और सहघटन है ; पर यह वह मौलिक सत्य है जिसे हम तबतक व्यवहार में नहीं ला सकते जबतक कि हम उस परम चैतन्य को पुनःप्राप्त न हो जायें । तब तक यह भावना केवल एक ऐसी बौद्धिक प्रत्यय ही रहे गी जिसका कोई सजातीय अनुभव हमें अपने व्यावहारिक जगत् में प्राप्त न होगा । अतः देशकाल से संबद्ध इन पदों का प्रयोग करते हुए हमें यूं कहना चाहिये कि यह जगत और इसके सब प्राणी स्वतःस्थित भगवान् में वैसे ही रहते हैं जैसे अन्य सब कुछ आकाश के मूल अवकाश में रहता है , जैसा कि भगवान् स्वयं ही अर्जुन से कहते हैं कि , ( जिस प्रकार सर्वत्र संचार करनेवाला वायुतत्व आकाश में रहता है , उसी प्रकार तुम समझो कि सब प्राणी मेरे अंदर रहते हैं ।)[१]विश्वसत्ता सर्वव्यापक और अनंत है और स्वतःसिद्ध भगवान् भी सर्वव्यापी और अनंत हैं ; पर स्वतःस्थित आनन्त्य स्थिर , अचल , अक्षर है और विश्व का अनान्त्य सर्वव्यापक गतिरूप है। आत्मा एक है , अनेक नहीं , पर विश्वात्मा ‘ सर्वभूतानि ’ के रूप में प्रकट होती है और ऐसा मालूम होता है कि मानो यह सब भूतों का जोड़ है । एक आत्मा है दूसरी आत्मा की शक्ति है जो मूल , आधारस्वरूप , अक्षर आत्मा की सत्ता में गतिमान् है , सिरजती है और कर्म करती है ।
आत्मा इन सब भूतों में या इनमें से किसी में वास नहीं करती , यह कहने का अभिप्राय यह है कि वह किसी पदार्थ के अंतर्भूत नहीं है , ठीक वैसे ही जेसे आकाश किसी रूप में अंतर्भूत नहीं है यद्यपि सब रूप मूलतः आकाश से ही उत्पन्न होते हैं । सब भूत मिलकर भी उन्हें अपने अंतर्भूत नहीं कर सकते न उनके घटक ही बन सकते हैं , ठीक वैसे ही जैसे आकाश वायुतत्व के गतिमान् विस्तार के अंदर अंतर्भूत नहीं होता न वायु के सब रूप या शक्तियां आकाश को घटित ही कर सकती हैं । परंतु फिर भी गति में हैं भगवान् ही ; एक होने पर भी वे अनेकों में प्रत्येक के ईश्वर होकर निवास करते हैं । ये दोनों ही संबंध उनके विषय में एक साथ सत्य हैं । एक आत्मसत्ता का जागतिक गति के साथ संबंध है ; और दूसरा अर्थात् प्रत्येक रूप में जो उनका अधिवास है वह उन्हींकी जागतिक सत्ता का अपने ही विभिन्न रूपों के साथ संबंध है । एक अपने अंदर सबका अंतर्भाव करने वाला अक्षरत्व , स्वतःसिद्ध आत्मतत्व है , और दूसरा उसी आत्मा का शक्तितत्व है जो अपने ही आवरण और प्राकट्य की विभिन्न शक्तियों के संचालन और निरूपण के रूप में प्रकट है । परम पुरूष जगत के ऊध्र्वमूल से अपनी प्रकृति पर झुकते हैं या उसे दबाते हैं , ताकि प्रकृति के अंदर जो कुछ है , जो कुछ एक बार व्यक्त हो चुका था और फिर अव्यक्त में लीन हो गया उसका सनातन चक्र फिर से प्रवर्तित हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.6

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