गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 301

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

अब गीता कहती है कि परम पुरूष के अंदर सारे पदार्थ हैं पर वे पुरूष किसी में नहीं हैं , ( सब मेरे अंदर स्थित हैं , पर मैं उनके अंदर नहीं , ) पर इसके बाद ही फिर गीता ने कहा , ( मेरे अंदर सब भूत नहीं हैं ...... मेरी आत्मा सब भूतों को धारण करने वाली है , भूतों में रहने वाली नहीं) ।[१]और फिर इसके बाद परस्पर - विरोधभास के साथ गीता ने यह बात कही कि मनुष्य - शरीर में भगवान् ने अपना वासस्थान , अपना घर कर लिया है , और इस सत्य को जान लेना कर्म , भक्ति और ज्ञान के समग्र के द्वारा जीव के मुक्त होने के लिये आवश्यक है । ये सब वचन केवल देखने में ही परस्पर - विसंगत हैं। परम पुरूष परमेश्वर के नाते भगवान् भूतों में नहीं हैं , और न भूत उनमें हैं , क्योंकि आत्मभाव और भूतभाव में हम लोग जो भेद करते हैं वे केवल पांच भौतिक जगत के आविर्भाव के संबंध में ही है । विश्वातीत सत्ता में तो सभी सनातन आत्मा हैं और सब , यदि वहां भी अनेकत्व है तो , सनातन आत्मा ही हैं । वहां के लिये रहने का स्थानसंबंधी प्रश्न भी उत्पन्न नहीं हो सकता , क्योंकि विश्वातीत निरपेक्ष आत्मा देश और काल के प्रत्ययों से सीमित नहीं होती , देश और काल तो भगवान् की योगमाया से यहां सिरजे जाते हैं ।
वहां सबका अधिवास आत्मा में है , देश या काल में नहीं ; वहां की भित्ति आत्मिक स्वरूपता और सहस्थिति ही हो सकती है । परंतु इसके विपरीत विश्व के प्राकटय में परम अव्यक्त विश्वातीत पुरूष के द्वारा देश और काल के अंदर विश्व का विस्तार है , और उस विस्तार में वे प्रथम उस आत्मा के रूप में प्रकट होते हैं जो ‘ भूतभूत ’ है अर्थात् सब भूतों को धारण करने वाली है , वही अपनी सर्वव्यापक आत्मसत्ता में सबको धारे रहती है । और इस सर्वत्रावस्थित आत्मा के द्वारा भी वे परम पुरूष परमात्मा इस जगत को धारण किये हुए हैं ऐसा कहा जा सकता है ; वे ही उसकी अदृश्य आत्मप्रतिष्ठा और सब भूतों के आरंभ का गुप्त आत्मिक कारण हैं । वे इस जगत् को उसी प्रकार धारण किये हुए हैं जिस प्रकार हमारी अंतःस्थ गुप्त आत्मा हमारे विचारों , कर्मो और व्यापारों को धारण करती है । वे मन , प्राण , शरीर में व्यापक हैं और इन्हें अपने अंदर रखे हुए , अपनी सत्ता से इन्हें धारण किये हुए से प्रतीत होते हैं । परंतु यह व्यापकता स्वयं ही चैतन्य की एक क्रिया है ,जड़ की नहीं ; स्वयं शरीर आत्मा के चैतन्य की ही एक सतत क्रिया है।सब भूत इन परमात्मा के अंदर हैं ; सब उनमें अवस्थित हैं , वस्तुतः जड़ रूप से नहीं , बल्कि आत्मसत्ता के ही उस विस्तृत आध्यात्मिक आधन के रूप में जिसके संबंध में हमारी यह कल्पना कि वह यही पार्थिव और आकाशीय अवकाश है , बहुत संकुचित और वैसी ही है जैसी कि भौतिक मन - बुद्धि और इन्द्रियां उसकी कल्पना कर सकती हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.4 -5

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