गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 308
यदि चित्त में आंतरिक अनुभूति की कोई प्रवृत्ति न हो , जीव पर छायी हुई कोई शक्ति न हो , आत्मा के अंदर कोई पुकार न हो , तो उसका अर्थ इतना ही होगा कि मस्तिष्क के बहिर्भाव से समझा है पर अंदर जीव ने कुछ देखा नहीं हैं सच्चा ज्ञान अंतःस्थ जीवभाव से जानना है , और जब अंतःस्थ जीव को उस प्रकाश का स्पर्श होता है तब जिस चीज को उसने देखा है उसे गले लगाने के लिये वह उठ खड़ा होता है , उसे आयत्त करने के लिये वह लालायित होता है , उसे अपने अंदर और अपने - आपको उसके अंदर रूपान्वित करने के लिये साधन - संग्राम में उतरता है , उसने जो दर्शन किया है उसके तेज के साथ वह एक होने का प्रयास करता है । इस अर्थ में ज्ञान अभेद - भाव को प्राप्त होने के लिये जाग उठता है , और चूंकि अंतःस्थ जीव चैतन्य और आनंद के द्वारा, प्रेम के द्वारा , आत्मभाव का जो कुछ आभास उसने पा लिया है उसकी प्राप्ति और उसके साथ एकत्व के द्वारा आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होता है , ज्ञान का अंदर जाग उठना अपने - आप ही इस सच्चे और एकमात्र पूर्ण साक्षात्कार की एक ऐसी लगन पैदा कर देता है जो सब विघ्न - बाधाओं को कुचलकर आगे बढ़ती है ।
इस तरह जो कुछ जाना जाता है , वह कोई बहिर्भूत विषय नहीं होता , बल्कि वह भागवत पुरूष , हम जो कुछ भी हैं उसकी आत्मा और प्रभु का स्वानुभूत ज्ञान होता है । इसके अटल परिणाम - स्वरूप भगवन् के प्रति एक सर्वजित् आनंदमयी वृत्ति प्रवाहित होने लगती है और एक प्रगाढ़ और भवमय प्रेम और भक्ति की धाराएं बहने लगती हैं और यही ज्ञान की आत्मा है। और यह भक्ति हृदय की कोई एकांगी वृत्ति नहीं , बल्कि जीवन का सर्वाग समर्पण है । इसलिये यह यज्ञ भी है , क्योंकि इसमें सब कर्म ईश्वरार्पण करने की क्रिया होती है , अपनी सारी क्रियाशील अंतर्वाह्म प्रकृति अपनी प्रत्येक मानसिक और प्रत्येक विषयगत क्रिया में अपने भजनीय भगवान् को समर्पित की जाती है । हमारी सारी मानसिक क्रियाएं उन्हींके अंदर होती हैं और वे ढूंढ़ती हैं अपनी सारी शक्ति और प्रयास के मूल और गंतव्य स्थल के तौर पर उन्हींको , उन्हीं आत्मा और प्रभु को । हमारी सब बाह्म क्रियाएं जगत में उन्हीं की ओर गतिमान् होतीं और उन्हींको अपना लक्ष्य बनाती हैं , भगवत्सेवाकार्य का नवारंभ कराती हैं उस जगत् में जिसकी नियामक शक्ति हमारे वे अंतःस्थ भगवान् हैं जिनके अंदर ही हम सब विश्व् और उसके समस्त जीवों के साथ सर्वभूतस्थित एकात्मा हैं । क्योंकि , जगत् और आत्मा , प्रकृति और प्रकृतिस्थ पुरूष दोनों उसी एक के चैतन्य से प्रकाशमान हैं और दोनों ही उन्हीं एक परम पुरूष पुरूषोत्तम के ही आंतर और बाह्म विग्रह हैं ।
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