गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 58

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

वह दया ही नहीं है, बल्कि दुर्बल आत्मदया से परिपर्ण नपुंसकता है । जो कर्म उसके सामने उपस्थित है उसके फलस्वरूप जो मानसिक यंत्रणा उसे भोगनी पड़ेगी वह उसे बचना चाहता है , वह कहता है कि , “ मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को मैं कैसे दूर करूं , यह मेरी समझ में नहीं आता , “[१]यह आत्मदया अत्यंत तुच्छ और अनार्य भावों में गिनी जाती है । इसमें जो दूसरों के सुख के लिये कृपा का भाव है वह भी एक प्रकार की आत्म - तृष्टि ही है , यह स्नायुआ का हत्याकांड से पीछे हटना है , धार्तराष्ट्रो के संहार - कार्य से उसके चित्त का अहमात्मक और भावावेगमय संकोच है , क्योंकि ये लोग उसके स्वजन हैं और इनके बिना तो जीवन ही शून्य हो जायेगा । यह दया ,मन और इद्रियों की दुर्बलता है जो उन लोगों के लिये अच्छी है जो अभी अपने विकास के निम्न स्तर पर हैं , जिन्हें दुर्बल होना ही चाहिये अन्यथा वे क्रूर और कठोर बन जायेगें ; उन्हे अपने संवेदनात्मक अहंकार के कठोर रूपों को अपने कोमल स्वभाव के द्वारा ठीक करना पडता है , प्रकाशमय तत्व अर्थात सत्वगुण की सहायता के लिये दुर्बल और आलसी तत्व अर्थात् तमोगुण का इसलिये आवाहन करना पडता है कि वह राजसिक आवेशों और ज्यादतियों को दबाये रहे । पर यह मार्ग उस उन्नत आर्य पुरूष का नहीं , जिसको दुर्बलता के रास्ते से नहीं बल्कि अधिकारधिका बलवान होकर ही आगे बढ़ना है।
अजुन देवनर है , नरश्रेष्ठ बनाये जाने की प्रक्रिया में है और इसलिये देवताओं ने उसे चुना है । उसे एक काम सौंपा गया है , उसके समीप उसके रथ पर स्वयं भगवान् विराजमान हैं , उसके हाथों मे दिव्य गांडीव धनुष है और अधर्म के नेता , संसार में भगवान् के नेतृत्व के विरोधी उसके सामने खडे हैं । उसे यह अधिकार नहीं है कि अपने भावावेगों और आवेशो के अनुसार कर्म और अकर्म का निर्णय करे , या अपने अहंपरायण हृदय और बुद्धि की बात मानकर एक आवश्यक संहार - कर्म से हट जाये , अथवा यह सोचकर अपने कर्तव्य कर्म से विरत हो कि इससे जीवन दु:खमय और सारहीन हो जायेगा या चूंकि इस संग्राम जिन लाखों प्राणियों का विनाश होगा उनके वियोग के कारण इसके लौकिक परिणाम का उसकी दृष्टि मे कोई मूल्य नहीं । यह सब उसका अपने उच्चतर स्वभाव से दुर्बलता वश अध: पतन है । उसका अधिकार बस अपने “ कर्तव्य कर्म ” को देखने का है । उसे चाहिये कि केवल भगवान् के उस आदेश को सुने जो उससे क्षात्र - स्वभाव मे से होकर दिया जा रहा है और यही अनुभव करे कि जगत् और मानव जाति का भवितव्य उसे अपना देव - प्रेषित मनुष्य जानकर इसलिये पुकार रहा है कि वह जगत् और मानव जाति के आगे बढने मे सहयक हो और अंधकार का पक्ष लेने वाली जो शत्रु - सेनाएं मार्ग को रोके हुई है , उन्हे मार भगावे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1गीता, 2.8

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