गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 59
अर्जुन श्रीकृष्ण को उत्तर देते हुए फटकार को स्वीकार करता है , हालाकि अब भी वह उनके आदेश का पालन करने से हिचकचाता और इनकार करता है ।वह अपनी दुर्बलता को जानता है , फिर भी उसके आधीन होकर रहना चाहता है । उसके हृदय की कृपणता ने उसके असली वीर स्वभाव को पराभूत कर दिया है ; उसकी सारी चेतना धर्मसंमूढ हो गयी है और वह अपने सख भगवान् को अपने गुरूरूप से वरण करता है ; परंतु उसने अपने धर्म - ज्ञान का समर्थन जिन भावावेगमय और बौद्धिक आधारों पर किया था, वे एकदम गिर गये हैं और वह गुरू के ऐसे आदेश को नहीं स्वीकार कर सकता जो उसकी नजर में उसके पुराने दृष्टिकोण के जैसा ही है और कर्म - संबधी कोई नया आधार नहीं देता । इसलिये अब भी वह उपस्थित कर्म न करने की बात का ही समर्थन करने की चेष्टा करता है और उसकी पुष्टि में अपनी स्नायवीय और सवेदनात्मक सत्ता के दावे को उपस्थित करता है जो इस हत्याकांड से और इसके रक्त से सने हुए भागों के परिणाम से कांपती है, अपने हृदय के दावे को उपस्थित करता है जो संहार - कर्म से इसलिये पीछे हटता है कि इससे जीवन खोखला और उदास हो जायेगा, अपने प्रचलित नैतिक चिचारों के दावे को उपस्थित करता है जो इसलिये भयभीत हो गये हैं कि भीष्म और द्रोणचार्य जैसे गुरूओं की हत्या करना आवश्यक होगा , अपनी तर्कबुद्धि के दावे को उपस्थित करता है जो उसको सौपे गये भीषण और प्रचंड कर्म में कोई भी भलाई नहीं देखती , बल्कि जिसमें उसे बुराई - ही - बुराई नजर आती है ।
उसने यह निश्चय कर लिया है कि अब तक जिन विचारों और प्रेरक भावो के आधार पर वह लड़ सकता था उनके आधार पर तो वह अब तो वह अब नहीं लड़ेगा और इस निश्चय के साथ वह मौन होकर बैठ गया और अपनी आपत्तियों के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा , वह समझता था कि इन आपत्तियों का कोई उत्तर नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण सबसे पहले अर्जुन की अहमात्मक सत्ता के इन दावों का निराकरण करते हैं जिससे उसके अंदर ऐसे उच्चतर धर्म के लिये स्थान खाली हो जाये जो कर्म के समस्त अहमात्मक प्रेरक हेतुओं से परे है । श्रीगुरू का उत्तर दो विभिन्न धाराओं पर चलता है । पहला संक्षिप्त उत्तर आर्य - संस्कृति की उच्चतम भावनाओं के आधार पर है जिसमें अर्जुन पला है , दूसरा , सर्वथा भिन्न प्रकार का और अधिक व्यापक है , उसका आधार है वह अधिक अंतरंग ज्ञान जो हमारी सत्ता के गंभीरतर सत्यों में हमारा प्रवेश करता है , और वहीं से गीता की वास्तविक शिक्षा आरंभ होती है । पहला उत्तर वेदांत - दर्शन की दार्शनिक और नैतिक धारणा पर तथा कर्तव्य और स्वाभिमान - संबधी सामाजिक भावना पर अवलंबित था और ये ही थे आर्यों के समाज के नैतिक आधार ।
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