गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 60
अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार करते समय नैतिक और यौक्तिक कारण दिखाकर अपनी बात को पुष्ट करना चाहा ,किंतु इसमें उसने अपने अज्ञानी और अशुद्ध चित के विद्राह को ऊपरी युक्तियों के शब्दजाल से ढक दिया है । उसने भौतिक जीवन और शरीर की मृत्यु के संबध में ऐसी - ऐसी बातें कहीं हैं मानो ये ही मूल सद्वस्तु हों ; परंतु ज्ञानी और पंडितों की दृष्टि में इनका ऐसा कोई तात्विक मूल्य नहीं है । अपने सगे - संबंधियों और बंधु - बांधवों की शारीरिक मृत्यु का दु:ख एक ऐसा शोक है जो बुद्धिमता और जीवन के सच्चे ज्ञान की दृष्टि से अनुचित है । ज्ञानवान जीवन - मरण पर रोया नहीं करते क्योंकि वे जानते है कि दुख और मृत्यु आत्मा के इतिहास में सामान्य घटनाएं मात्र हैं । आत्मा ही सद्वस्तु है , शरीर नहीं । ये सब राजा जिनकी मृत्यु समीप जानकर अर्जुन शोक कर रहा है इस जीवन के पहले भी जीते थे और आगे भी मनुष्य - रूप में जीयेगे क्योंकि जीव जैसे शरीरत कौमार से यौवन और यौवन से वार्द्धक्य की अवस्था को पहुंचता है वेसे ही वह शरीर परिवर्तन करता है । जो धीर है , जो विचारक है , जिसका मन अचंचल और ज्ञानी है , जो जीवन को स्थिर दृष्टि से देखता है और अपने इन्द्रियानुभवों और भावावेगों से विक्षुब्ध और अंधा नहीं होता उसे ये बाह्म भौतिक दृश्य धोखा नहीं दे सकते ; उसके खून का , उसकी स्नायुओं का और उसके हृदय का कोलाहल उसके निर्णय पर परदा नहीं डाल सकता , न उसके ज्ञान को अन्यथा कर सकता है ।
वह शरीर और इन्द्रियों के जीवन के बाह्म तथ्यों के परे जाकर अपनी सत्ता के वास्तविक तथ्य को देखता है । वह अज्ञानमयी प्रकृति की भावावेगमयी और भौतिक कामनाओं से ऊपर उठकर मानव - जीवन के एक मात्र सच्चे ध्येय में पहुंच जाता है ।
वास्तविक तथ्य क्या है ? वह परम ध्येय क्या है ? यह कि जगत् इन महान् आवर्तनों के भीतर मुनष्य के जीवन – मरण का जो सतत प्रवाह चल रहा है वह एक दीर्घ - कालव्यापी प्रगति है जिसके द्वारा मानव - प्राणी अपने आपको अमृतत्व के लिये तैयार करता है । वह अपने - आपको कैसे तैयार करे ? कौन - सा मनुष्य अधिकारी होता है ? वह जो अपने - आपको प्राण और शरीर समझने वाली धारणा से ऊपर उठाता है , जो संसार के भोतिक और संवेदनात्मक प्रभाव को बहुत अधिक मूल्य नहीं देता अथवा उतना मूल्य नहीं देता जितना देहात्म - बुद्धि रखने वाला देता है , जो अपने - आपको और आत्मा जानता है , जो अपने शरीर मे नहीं, बल्कि आत्मा में रहने का अभ्यासी होता है और दूसरों के साथ, उन्हें केवल देह - स्वरूप जानकर नहीं, बल्कि आत्मा जानकर ही व्यवहार करता है । कारण अमृतत्व का अर्थ मृत्यु के बाद केवल जीना ही नहीं है - वह तो मन को लेकर जानते हुए प्रत्येक प्रणी को प्राप्त है - अमृतत्व का अर्थ है जीवन - मरण की अवस्था को पार कर जाना ।
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