गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 99

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

“युक्त आसीत मत्पर:” इन तीन शब्दों में वह परम रहस्य बीज - रूप से भर दिया गया है जिसका विस्तार आगे होना है। ऐसा जब हो जाये तब विषयों में विचरते हुए , उनके संपर्क में रहते हुए, उन पर क्रिया करते हुए भी इन्द्रियों को अंतरात्मा के सर्वथा आधीन रखना - विषय और उनके संस्पर्श तथा उनकी प्रतिक्रियाओं के वशीभूत होकर नहीं - और फिर इस अंतरात्मा को परम - आत्मा, परम पुरूष के अधीन रखना संभव होता है। तब विषयों की प्रतिक्रियाओं से छूटकर इन्द्रियां राग - द्वेष से वियुक्त , काम - क्रोध से मुक्त होती हैं और तब आत्मप्रसाद अर्थात् आत्मा की स्थिरता, शांति, विशुद्धता और संतुष्टि प्राप्त होती है। वह आत्मप्रसाद अर्थात् जीव के परम सुख का कारण है; उसके रहते कोई दु:ख उस शांत पुरूष को स्पर्श नहीं कर सकता; उसकी बुद्धि तुरंत आत्मा की शांति में स्थित हो जाती है; दुःख रह ही नहीं जाता। इसी आत्मावस्था और आत्मज्ञान में स्थिर, निष्काम, दु:ख रहित बुद्धि की धृति को गीता ने समाधि कहा है। समाधिस्थ मनुष्य का लक्षण यह नहीं है कि उसको विषयों और परिस्थितियों का तथा अपने मनोमय और अन्नमय पुरूष का होश ही न रहे और शरीर को जलाने या पीडित करने पर भी उसे इस चेतना में लौटाया न जा सके, जैसा कि साधरणतया लोग समझते हैं; इस प्रकार की समाधि तो चेतना की एक विशिष्ट प्रकार की प्रगाढ़ता है ,यह समाधि का मूल लक्षण नहीं है। समाधि की कसौटी है सब कामनाओं का बहिष्कार, किसी भी कामना का मन तक न पहुंच सकना , और यह वह आंतरिक अवस्था है, जिससे वह स्वतंत्रता उत्पन्न होती है, आत्मा का आंनद अपने ही अंदर जमा रहता है और मन सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में ही अवस्थित रहता हुआ आकर्षणों और विकर्षणों से तथा बाह्म जीवन के घड़ी - घड़ी बदलने वाले आलोक अंधकार और तूफानों तथा झंझटो से निर्लिप्त रहता है। वह बाह्म कर्म करते हुए भी अंतर्मुख रहता है; बाह्मपदार्थो को देखते हुए भी आत्मा में ही एकाग्र होता है; दूसरों की दृष्टि में सांसारिक कर्मो में लगा हुआ प्रतीत होने पर भी सर्वथा भगवान् की ओर लगा रहता है । अर्जुन औसत मनुष्य के मन में उठने वाला यह प्रश्न करता है कि इस महान् समाधि का वह कौन - सा लक्षण है जो बाह्म, शारीरिक और व्यावहारिक रूप में जाना जा सके; समाधिस्थ मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है? इस तरह के कोई लक्षण नहीं बताये जा सकते और न भगवान् गुरू की बतलाने का प्रयास करते है; क्योंकि समाधि की जो कोई कसौटी हो सकती है, वह आंतरिक है और कसकर देखने की बहुत - सी विरोधी शक्तियां हैं,और ये भी मनोगत हैं । मुक्त पुरुश का महान लक्षण समता है और समता की पहचान के लिये जो अति स्पष्ट चिह्म है वे भी आंतरिक हैं। “दु:ख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता ,सुख की इच्छा जिसकी जाती रही है, राग ,भय और क्रोध जिसका निकल गया है , वही मुनि स्थितप्रज्ञ है”[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.46

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