भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 104

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
65.प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याषु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।
और उस आत्मा की शुद्धता में उसके सब दुःखों की समाप्ति हो जाती है। इस प्रकार के विशुद्ध आत्मा वाले व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही (आत्मा की शान्ति में) स्थित हो जाती है।

66.नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिशान्तस्य कुतः सुखम्।।
असंयत व्यक्ति में बुद्धि में नहीं होती। असंयत व्यक्ति में एकाग्रता की शक्ति भी नहीं होती। जिसमें एकाग्रता नहीं है, उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती; और जिसे शान्ति नहीं है, उसे सुख कहां से मिल सकता है!

67.इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोअनुविधायते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।
जब मन भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे भागता है,तब वह मनुष्य की समझ को हर लेता है, जैसे वायु जल में नाव को बहा ले जाती है।

68.तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित।।
इसलिए हे महाबाहु (अर्जुन), जिसकी इन्द्रियाँ उनके विषयों से सब प्रकार से दूर खींच ली गई हैं, उसी की बुद्धि दृढ़ता से स्थिर है।

69.या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।
सब प्राणियों के लिए जो रात होती है, उसमें संयमी जागता रहता है और सब प्राणियों के लिए जो जागने का समय है, वह देखने वाले मुनि के लिए (या क्रान्तदर्शी मुनि के लिए) रात होती है।जब सब प्राणी इन्द्रियों के विषयों की तड़क-भड़क से आकर्षित होते हैं, तब मुनि वास्तविकता को समझने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जिसके प्रति अज्ञ लोग सुप्त या निरपेक्ष रहते हैं। विरोधों का जीवन, जो अज्ञानियों के लिए दिन या सक्रियता की दशा है, ज्ञानी के लिए रात्रि या आत्मा के अन्धकार की अवस्था है। गेटे से तुलना कीजिएः ’’भ्रान्ति का सत्य के साथ वही सम्बन्ध है, जो निद्रा का जागरण के साथ वही सम्बन्ध है, जो निद्रा का जागरण के साथ।’’
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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