भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 105

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
70.आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समदुमापः प्रविशन्ति यद्धत्।
तद्धत्कामा यं प्रविशन्ति सर्व
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
जिसकी इच्छाएं उसके अन्दर ऐसे समा जाती हैं, जैसे जल समुद्र में समा जाता है- जो समुद्र सदा भरता रहने पर भी कभी मर्यादा को नहीं लाघंता- वह शान्ति को प्राप्त करता है; और जो इच्छाओं के पीछे भागता है, उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती।

71.विहाय कामान् यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।।
जो मनुष्य सब इच्छाओं को त्याग देता है और लालसा से शून्य होकर कार्य करता है, जिसे किसी वस्तु के साथ ममत्व नहीं होता और जिसमें अंहकार की भावना नहीं होती, उसे शान्ति प्राप्त होती है।उपनिषद् की इस सुविदित उक्ति से तुलना कीजिएः ’’मानवीय मन दो प्रकार का होता है- शुद्ध और अशुद्ध। जो मन अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगा रहता है, वह अशुद्ध होता है, वह शुद्ध होता है। ’’ [१]चरित: कार्य करता है। वह मुक्त रूप से और तत्परतापूर्वक, बिना मापे-तोले अपने-आप को किसी ऐसी वस्तु के लिए खपा देने को तैयार रहता है, जिसे वह अन्तःस्फुरणात्मक रूप से महान् और श्रेष्ठ समझता है।शान्तिम्: शान्ति; पार्थिव अस्तित्व के सब कष्टों की समाप्ति। [२]

72.एषा ब्रह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेअपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।
हे पार्थ (अर्जुन), यह दिव्य दशा (ब्राह्मी स्थिति) है। जो इसे एक बार प्राप्त कर लेता है वह (फिर) कभी मोह में नहीं पड़ता। इसमें स्थित रहकर मनुष्य अन्त में (मृत्यु के समय) परमात्मा के परम आनन्द (ब्रह्म-निर्वाण) को प्राप्त कर सकता है। ब्राह्मी स्थिति: शाश्वम जीवन। निर्वाणम्, मोक्षम्। शंकराचार्य। निर्गतं वानं गमनं यस्मिन् प्राप्ये ब्रह्मणि तन्निर्वाणम्। - नीलकण्ठ। निर्वाण शब्द का प्रयोग बौद्धदर्शन में पूर्णता की दशा को सूचित करने के लिए किया गया है। धम्मपद में कहा है: स्वास्थ्य सबसे बड़ा लाभ है; सन्तोष सबसे बड़ा धन है; श्रद्धा बड़ा मित्र है और निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।[३]

 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनो हि द्वैविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च । अशुद्ध कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ।।
  2. सर्वसंसारदुःखो परामत्वलक्षणम्,निर्वाणाख्याम्।- शंकराचार्य।
  3. . 204। साथ ही देखिए महाभारत, 14, 543: विहाय सवसंकल्पान् बुद्धह्य शारीरमानसान् । स वै निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः ।।

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