भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 112

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
13.यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वाकिल्बिषैः।
भुज्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणत्।।
वे सन्त व्यक्ति, जो यज्ञ के बाद बची हुई वस्तु(यज्ञशेष) का उपभोग करते हैं, सब पापों से मुक्त हो जाते हैं परन्तु जो दुष्ट लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं।

14.अन्नाद्धवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्सम्भवः ।
यज्ञाद्धवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्धवः।।
अन्न से प्राणी होते हैं वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। यज्ञ से वर्षा होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। मनु से तुलना कीजिए 3,76।
 
15.कर्म ब्रह्मेद्धवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्धवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
(यज्ञ के ढंग के) कर्मों का मूल ब्रह्म (वेद) को समझ और ब्रह्म का जन्म अक्षर (अनश्‍वर) से होता है। इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म सदा यज्ञ में विद्यमान रहता है। कर्म का मूल अनश्‍वर में है।यदि भगवान् कर्म न करे, तो यह सारा संसार नष्ट हो जाए। यह संसार एक महान् यज्ञ है। ऋग्वेद में (10,90)लिखा है कि एक पुरुष की यज्ञ में बलि दी गई थी और उसके अंग-प्रत्यंग सारे आकाश में बिखर गए। इस महान् यज्ञ द्वारा विश्व की व्यवस्था बनी हुई है। कर्म शरीर धारियों के लिए नैतिक के साथ-साथ भौतिक आवश्यकता भी है।[१]ब्रह्म को प्रकृति भी माना गया है,जैसे अध्याय 14 के 3-4 श्लोकों में। प्रकृति का जन्म ब्रह्म से होता है और संसार की सारी गतिविधि का मूल यह प्रकृति ही है।
 
16.एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।
(इस संसार में जो व्यक्ति इस प्रकार घुमाए जा रहे इस चक्र के चलने में सहायता नहीं देता, वह दुष्ट स्वभाव वाला और इन्द्रियों के सुखों में मग्न रहने वाला व्यक्ति, हे पार्थ (अर्जुन) व्यर्थ ही जीवन बिताता है।
 इन श्‍लोकों में यज्ञ की देवतओं और मनुष्यों में परस्पर-विनिमय की वैदिक धारणा को सृष्टि में सब प्राणियों की परस्पराश्रितता की एक विस्तृततर धारणा के रूप में पस्तुत किया गया है। यज्ञ की भावना से किए गए कार्य परमात्मा को प्रसन्न करने वाले होते हैं। परमात्मा सब बलिदानों का उपभोग करने वाला है।[२]यज्ञो वै विष्णुः। [३] यज्ञ ही भगवान है।यह जीवन का विधान (नियम) भी है। व्यष्टि और सृष्टि एक-दूसरे पर आश्रित हैं। मानवीय जीवन और विष्व-जीवन में निरन्तर पारस्परिक विनिमय होता रहता है। जो व्यक्ति केवल देवताओं के लिए नहीं किया जाता, अपितु उस भगवान् के लिए किया जाता है, जिसके कि वे देवता विभिन्न रूप हैं। चैथे अध्याय के चैबीसवें श्लोक में यह कहा गया है कि यज्ञ की क्रियाएं और सामग्री, देने वाला और ग्रहण करने वाला और यज्ञ का लक्ष्य तथा उद्देश्य ब्रह्म ही है।

 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीधर का कथन हैः यजमानादिव्यापाररूपं कर्म ब्रह्म वेदः; कर्म तस्मात् प्रवृत्तम्
  2. देखिए,5,29
  3. तैत्तिरीय संहिता, 1,7,4

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