भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 113

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
आत्म में सन्तुष्ट रहो
17.यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।
परन्तु जो मनुष्य केवल आत्म में आन्नद अनुभव करता है,जो आत्म से सन्तुष्ट है और आत्म से तृप्त है,उसके लिए कोई ऐसा कार्य नहीं है,जिसे करना आवश्यक हो। वह कत्र्तव्य की भावना से मुक्त हो जाता है। वह कत्र्तव्य की भावना से या अपने अस्तित्व के प्रगतिशील रूपान्तरण के लिए कार्य नहीं करता, अपितु इसलिए कार्य करता है कि उसका पूर्णता को प्राप्त स्वभाव कर्म में स्वतः प्रवृत्त हो जाता है।
 
18.नैव तस्य कृतेनार्था नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।
इसी प्रकार इस संसार में उसके लिए कोई ऐसी वस्तु नहीं रहती, जो उन कर्मों द्वारा प्राप्त होनी हो, जो उसने किए हैं या उन कर्मों उन कर्मां द्वारा प्राप्त होनी हो, जो उसने नहीं किए हैं। वह किसी भी प्राणी पर अपने किसी स्वार्थ के लिए निर्भर नहीं रहता। अगले श्लोक में यह बताया गया है कि भले मुक्त मनुष्य के लिए कर्म या अकर्म द्वारा प्राप्त करने को कुछ नहीं रहता और वह आत्म में स्थित होकर और उसका आनन्द लेते हुए पूर्णतया सुखी रहता है, फिर भी निष्काम कर्म नाम की एक ऐसी वस्तु है, जिसे वह संसार के कल्याण के लिए करता रहता है।

19.तस्मादसक्तः सततं-कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।
इसलिए तू अनासक्त होकर सदा करने योग्य कर्म करता रह; क्योंकि अनासक्त रहकर कर्म करता हुआ मनुष्य सर्वोच्च (परम) को प्राप्त करता है। यहाँ पर आसक्तिरहित होकर किए गए कार्य को यज्ञ की भावना से किए गए कार्य की अपेक्षा ऊँचा बतलाया गयाहै। यज्ञ की भावना से किया गया कार्य अपने-आप में स्वार्थ -भावना से किए गए कार्य की अपेक्षा अधिक अच्छा होता है। मुक्त आत्माएं भी अवसर पड़ने पर कार्य करती हैं। [१] जहाँ इस श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य अनासक्त होकर कर्म करता हुआ सर्वोच्च भगवान् परम् तक पहुँचता है, वहाँ शंकराचार्य का मत है कि कर्म मन को षुद्ध करने में सहायक होता है और मन की शुद्धता के फलस्वरूप मुक्ति होती है। कर्म हमें मन की शुद्धता की प्राप्ति द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से पूर्णता तक ले जाता है। [२]


 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योगवाशिष्ठ से तुलना कीजिएः ’’ज्ञानी व्यक्ति के लिए कर्म करने के द्वारा अथवा कर्म न करने के द्वारा प्राप्त करने को कुछ भी नहीं है। इसलिए वह जब जैसी आवश्यकता होती है, वैसा कर्म करता है।’’ फिर, ’’कोई काम किया जाए या न किया जाए, मेरे लिए वह एक जैसा है। मैं कर्म न करने का आग्रह किसलिए करूँ? जो कुछ मेरे सामने आता है, तो मै उसे करता चलता हँ।’’ ज्ञस्य नार्थः कर्मत्यागैः कर्मसमाश्रयैः। तेन स्थितं यथा यद्यत्तत्तथैव करोत्यसौ।। -6, 199 मम नास्ति कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। यथाप्राप्तेन तिष्ठामि ह्यकर्मणि क आग्रहः।। - वही, 216
  2. सत्वशुद्धिद्वारेण। साथ ही देखिए,गीता पर शंकराचार्य की टीका, 3,4

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