भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 123

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
43.एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।
हे महाबाहु, (अर्जुन), इस प्रकार जो बुद्धि से भी परे है, उसे जानकर और (निम्नतर) आत्मा को आत्मा द्वारा स्थिर करके तू इस कामरूपी शत्रु को मार डाल, जिस तक कि पहुंचना बहुत कठिन है। काम: इच्छा।[१]चंचल अंहकार को नित्य आध्यात्मिक आत्म के प्रकाश द्वारा नियन्त्रित कर। जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है, वह सच्चे अर्थों में स्वाधीन हो जाता है। और वह अपने आन्तरिक प्रकाश के सिवाय किसी अन्य शक्ति से मार्गदर्शन के लिए नहीं कहता।
इस आध्याय में फल की स्वार्थपूर्ण लालसा से रहित होकर संसार के कल्याण के प्रयोजन से, यह समझते हुए, कि ये कार्य प्रकृति के गुणों या स्वयं परमात्मा द्वारा किए जा रहे हैं, कर्म करते रहने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। यामुनाचार्य का दृष्टिकोण यही है। [२]
इति’ ’ ’ कर्मयोगी नाम तृतीयोअध्यायः ।
यह है ’कर्मयोग’ नामक तीसरा अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: काममय एवायं पुरुषः।
  2. असक्स्या लोकरक्षायै गुणेष्वारोप्य कर्तुताम् । ईश्वरे वा न्यस्योक्ता तृतीये कर्मकार्यता ।।

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