भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 137
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा
यज्ञ और उसका प्रतीकात्मक मूल्य
23.गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।
जिस मनुष्य की आसक्तियां समाप्त हो चुकी हैं, जो कर्म को यज्ञ समझकर करता है, उसका कर्म पूर्णतया विलीन हो जाता है।
24.ब्रह्मार्पणं बंरह्म हविर्ब्रह्यग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्यैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।
उसके लिए अर्पण करने का कार्य भी परमात्मा है, अर्पित की जाने वाली वस्तु भी परमात्मा है; परमात्मा द्वारा वह परमात्मा की अग्नि में अर्पित की जाती है। जो मनुष्य अपने कार्यों में परमात्मा का अनुभव करता है, वह परमात्मा को ही प्राप्त करता है। यहां वैदिक यज्ञ का विस्तृततर आध्यात्मिक रूप में निरूपण किया गया है। यद्यपि यज्ञ करने वाला कर्म अवश्य करता है, फिर भी वह उसके द्वारा बंधता नहीं है [१], क्यों कि उसके पार्थिव जीवन में एक शाश्वतता की भावना व्याप्त रहती है। [२]
25.दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युयासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञंनैवोपजुहवति।।
कुछ योगी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं, जब कि अन्य योगी ब्रह्मकी अग्नि में यज्ञ द्वारा स्वयं यज्ञ को ही अर्पित कर देते हैं। शंकराचार्य ने इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में यज्ञ की व्याख्या आत्मा के रूप में की है। ’’ अन्य लोग अपने-अपको आत्मा के रूप में ब्रह्म की अग्नि में अर्पित कर देत हैं। ’’[३] जो भगवान् की विविध रूपों में कल्पना करते है, वे उनसे कर्म की पवित्र विधियों को पूर्ण करके अनुकूल फल पाना चाहते हैं, जब कि अन्य लोग स्वयं भगवान् को ही अपने सब कर्म समर्पित कर देते हैं।
« पीछे | आगे » |