भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 138

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
26.श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुहवति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषुः जुहवति।।
कुछ लोग श्रवण इत्यादि इन्द्रियों की, संयम की अग्नि में आहुति दे देते हैं; अन्य लोग शब्द इत्यादि इन्द्रियों के विषयों की आहुति इन्द्रियों की आग में देते हैं।
यज्ञ के द्वारा, जिसकी व्याख्या यहां मानसिक संयम और अनुशासन के रूप में की गई है, हम यह यत्न करते हैं कि ज्ञान हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व में रम जाए। 2 हमारा समूचा अस्तित्व समर्पित और परिवर्तित हो जाता है। इन्द्रियों के
’’तुम सब हुए हो और तुमने देखा है, किया है और सोचा है,
तुमने नहीं, लेकिन मैंने देखा है और मैं हुआ हूँ और मैने किया है..........
तीर्थ-यात्री, तीर्थ-’यात्रा ओर मार्ग,
मैं स्वयं ही था, जो अपनी ओर जा रहा था; और तुम्हारा
आगमन मेरे अपने द्वार पर मेरा ही आगमन था ..........
आओ, तुम भटके हुए कणों, अपने केन्द्र की ओर खिंच आओ.......
ओ किरणो, जो सुदूर अन्धकार मंे भटकती रही हो,
लौट आओ और वापस अपने सूर्य में विलीन हो जाए।’’
- आनन्द के कुमारस्वामी की पुस्तक हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धिज्म (1943)
विषयों के समुचित उपभोग की तुलना एक यज्ञ से की गई है, जिसमें इन्द्रियों के विषय तो हवि (आहुति दी जाने वाली सामग्री) हैं और इन्द्रियां यज्ञ की अग्नि हैं। आत्मसंयम के प्रत्येक रूप को, जिसमें हम अहंकारपूर्ण आनन्द को उच्चतर आनन्द के लिए त्याग देते हैं, जिसमें हम निम्नतर मनोवेगों को छोड़ देते हैं, यज्ञ कहा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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