भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 139
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा
27.सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।
फिर कुछ लोग अपने इन्द्रियों के सब कर्मों को और प्राणशक्ति के सब कर्मां को आत्मसंयम-रूपी योग की अग्नि में समर्पित कर देते हैं, जो (अग्नि) ज्ञान द्वारा जलाई जाती है।
28.द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।
इसी प्रकार कुछ लोग अपनी भौतिक सम्पत्ति को या अपनी तपस्या को या अपने योगभ्यास को यज्ञ के रूप में समर्पित कर देते हैं, जब कि कुछ अन्य लोग, जिन्होंने मन को वश में कर लिया है और कठोर व्रत धारण किए हैं, अपने अध्ययन और ज्ञान को यज्ञ के लिए अर्पित कर देते हैं।
29.अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेअपांन तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।
कुछ और भी लोग हैं, जो प्राणायाम में लगे रहते हैं; वे प्राण (बाहर निकलने वाले श्वास) और अपान (अन्दर आने वाले श्वास) के मार्ग को रोककर अपान में प्राण की और प्राण में अपान की आहुति देते हैं।
30अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राषेणु जुहृति ।
सर्वेअप्येते यज्ञविदों यज्ञक्षपितकल्मषाः।।
कुछ और भी लोग हैं, जो अपने आहार को नियमित करके अपने प्राणरूपी-श्वासों में आहुति देते हैं। ये सबके सब यज्ञ के ज्ञाता हैं (ये जानते हैं कि यज्ञ क्या है) और यज्ञ द्वारा उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। संयम सब यज्ञों का सार है, अतः यज्ञ अध्यात्म-विकास के साधन माने जा सकते हैं।
31.यज्ञशिष्टामृतहभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोअस्त्ययज्ञस्य कुतोअन्यः कुरुसत्तम।।
जो लोग यज्ञ के बाद बचे हुए पवित्र अन्न (यज्ञ-शेष) को खाते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। हे कुरुओं में श्रेष्ट (अर्जुन), जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, उसके लिए यह संसार ही नहीं है, फिर परलोक का तो कहना ही क्या! स्ंसार का नियम यज्ञ है और जो इसका उल्लंघन करता है, वह न तो यहां पूर्णता प्राप्त कर सकता है और न परलोक में।
« पीछे | आगे » |