भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 150

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-5
सच्चा संन्यास (त्याग) सांख्य और योग एक ही लक्ष्य तक पहुंचाते हैं

  
23.शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्धवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।।
जो मनुष्य शरीर त्याग करने से पहले यहीं इच्छा और क्रोध के आवेशों का प्रतिरोध करने में समर्थ है, वह योगी है, वह सुखी है।वह अनासक्त, जिससे आन्तरिक शान्ति, स्वतन्त्रता और सुख उत्पन्न होते हैं, यहां पृथ्वी पर भी प्राप्त की जा सकती है; उस समय भी, जब कि हम सशरीर जीवन बिता रहे हों। मानव-जीवन के मध्य भी आन्तरिक शान्ति प्राप्त की जा सकती है।

आन्तरिक शान्ति
24.योअन्तःसुखोअन्तरारामस्तथान्तज्र्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोअधिगच्छति ।।
जो मनुष्य अपने अन्दर ही सुख प्राप्त कर लेता है, जो अपने अन्दर ही आनन्द पाता है और इसी प्रकार जो अपने अन्दर ही ज्योति पा लेता है, वह योगी ब्रह्म-रूप हो जाता है और वह भगवान् के परम आनन्द (ब्रह्म-निर्वाण) को प्राप्त करता है। योगी अपने अन्दर विद्यमान शाश्वत ब्रह्म की चेतना के साथ मिलकर एक हो जाता है। अगले श्लोक से यह ध्वनित होता है कि यह निर्वाण केवल शून्यमात्र हो जाना नहीं है; यह एक ज्ञान और अपने ऊपर अधिकार से पूर्ण एक सकारात्मक दशा है।

25.लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषा।
छिन्नेद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
हे पवित्र मनुष्य, जिनके पाप नष्ट हो गए हैं और जिनके संशय (द्वैत) छिन्न-भिन्न हो गए हैं, जिनके मन अनुशासित हैं और जो सब प्राणियों का भला करने में आनन्द लेते हैं, वे परमात्मा के परम आनन्द (ब्रह्म-निर्वाण) को प्राप्त करते हैं। सर्वभूतहिते रताः: जो आत्मा ज्ञान और शान्ति को प्राप्त कर लेती है, वही प्रेममयी और करूणामयी आत्मा भी होती है। जो मनुष्य सारे अस्तित्व को भगवान् में देखता है, वह पतितों तथा अपराधियों में भी ब्रह्म को देखता है और गम्भीर प्रेम और सहानुभूति के साथ वह उनके पास जाता है।दूसरों का भला करना उन्हें भौतिक सुविधाएं प्राप्त कराना या उनके रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाना नहीं है; यह दूसरों को उनकी सच्ची प्रकृति को पहचानने और उन्हें सच्चा सुख प्राप्त करने में सहायता देना है। उस शाश्वत ब्रह्म का, जिसमें हम सब निवास करते हैं, चिन्तन अपने साथी-प्राणियों की सेवा की भावना का उत्साह और पुष्टि प्रदान करता है। सारे कार्य भगवान् के लिए हैं, जगद्-हिताय कृष्णाय। संसार को जीतने का अर्थ परलोकपरायण हो जाना नहीं है; इसका अर्थ सामाजिक जिम्मेदारियों से बचना नहीं है।गीता में धर्म के वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों पक्षों पर जोर दिया गया है। वैयक्तिक रूप से हमें अपने अन्दर ब्रह्म की खोज करनी चाहिए और उसे मानव में रमने देना चाहिए; सामाजिक दृष्टि से समाज को ब्रह्म की प्रतिमा के सम्मुख विनत किया जाना चाहिए। व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्रता और विलक्षणता में पनपना चाहिए और उसे प्रत्येक व्यक्ति के यहां तक कि क्षुद्रतम व्यक्ति के गौरव को भी पहचानना चाहिए। मनुष्य को केवल आत्मा के जगत् तक ऊपर गौरव को भी पहचानना चाहिए। मनुष्य को केवल आत्मा के जगत् तक ऊपर आरोहण नहीं करना है, अपितु जन्तु-जगत् तक नीचे भी उतरना है।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: दृष्टि ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत् ।

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