भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 152
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं
श्रीभगवानुवाच
1.अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः ।
स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।
श्री भगवान् ने कहा: जो मनुष्य कर्मफल की इच्छा न करता हुआ उस काम को करता रहता है, जो उसे करना चाहिए, वह सन्यासी है, वह योगी है; वह संन्यासी नहीं है, जो यज्ञ की अग्नि जलाना बन्द कर देता है और कोई धार्मिक क्रियाएं नहीं करता।यहां पर गुरु इस बात पर जोर देता है कि संन्यास या कर्म-त्याग का बाह्य कर्मों से बहुत थोड़ा सम्बन्ध है। यह तो एक आन्तरिक वृत्ति है। संन्यासी बनने के लिए यज्ञ की अग्नि और दैनिक विधि-विधानों को त्यागना आवश्यक नहीं है। त्याग की भावना के बिना इन विधि-विधानों से विरत होना व्यर्थ है।परन्तु शंकराचार्य ने ’केवलम्’ शब्द का प्रयोग करके यह अर्थ निकाला है कि ’’केवल वही संन्यासी नहीं, जो यज्ञ की अग्नि नहीं जलाता या धार्मिक क्रियाओं को नहीं करता।’’ यह मूल पाठ के साथ न्याय नहीं जान पड़ता।
2.यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।
जिसे वे लोग संन्यास कहते हैं, हे पाण्डव (अर्जुन), उसे तू अनुशासित कर्म (योग) समझ, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने (स्वार्थ के) संकल्प को त्यागे बिना योगी नहीं बन सकता।संन्यास: त्याग। यह फल के लिए आन्तरिक इच्छा के बिना आवश्यक कर्मों को करते रहने का नाम है। यही सच्चा योग है, अपने ऊपर पक्का नियन्त्रण और अपने ऊपर पक्का नियन्त्रण और अपने ऊपर पूर्ण अधिकार।इस श्लोक में कहा गया है कि अनुशासित कर्म (योग) ठीक वैसा ही अच्छा है, जैसा कि कर्मा का त्याग (संन्यास)।
मार्ग और लक्ष्य
3.आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढ़स्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
जो मुनि योग तक पहुंचना चाहता है, उसके लिए कर्म को साधन बताया गया है; जब वह योग को प्राप्त कर लेता है, तब शम अर्थात् शान्ति को साधन बताया गया है।जब हम मोक्ष पाने के महत्वाकांक्षी होते हैं (साधनावस्था), तब आन्तरिक त्याग की सही भावना से किया गया कार्य हमारे लिए सहायक होता है। जब हम एक बार अपने ऊपर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं (सिद्धावस्था), तब हम किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कर्म नहीं करते, अपितु परमात्मा की चेतना में स्थित होने के कारण कर्म करते रहते हैं। कर्म द्वारा हम आत्मनियन्त्रण प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं; जब आत्मनियन्त्रण प्राप्त हो जाता है, तब हमें शान्ति मिल जाती है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि तब हम सारे कर्मों को छोड़ देते हैं। 6, 1 में यह कहा गया है कि सच्चा योगी वह है, जो कर्म करता है, और वह नहीं, जो कर्म को त्याग देता है। ’शर्म’ का अर्थ कर्म से निवृत्ति नहीं है। यह ज्ञान का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि सिद्ध मुनि तो पहले ही ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है। 5, 12 में कहा गया है कि योगी कर्म के फलों को त्याग करने के द्वारा पूर्ण प्रशान्तता को प्राप्त करता है। वह पूर्ण शान्ति के साथ कर्म करता है। वह स्वतः स्फूर्ति प्राणशक्ति से लबालब भरा होता है और अपनी अक्षय शक्ति से उत्पन्न होने वाली उदारता के साथ कार्य करता रहता है।
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