भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 156
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं
प्लेटो का मैनो इस प्रश्न से शुरू होता हैः ’’सुकरात, क्या तुम मुझे यह बता सकते हो कि क्या धर्म सिखाया जाता है?’’ इसके उत्तर में सुकरात कहता है कि धर्म सिखाया नहीं जाता, अपतिु उसे ’अनुस्मरण किया जाता है। अनुस्मरण करना व्यक्ति के अपने आत्म को एक जगह केन्द्रित करना और अपनी आत्मा में वापस लौट आना है। ’अनुस्मरण’ के सिद्धान्त से यह ध्वनित होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को खोज आने अन्दर करनी चाहिए। वह अपना केन्द्र स्वयं है और सत्य स्वयं उसके अन्दर विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि उसमें उस सत्य को पाने का संकल्प और धैर्य हो । गुरु का काम शिक्षा देना नहीं, अपितु शिष्य को अपने-आप को वश में करने में सहायता देना है। सच्चा उत्तर स्वयं प्रश्नकर्ता के अन्दर ही विद्यमान होता है; केवल उससे वह उत्तर दिलवाया जाना होता है। प्रत्येक व्यक्ति सत्य को जानता होता है और वह वस्तु-रूपात्मक जगत् के साथ अपने-आप को एक समझने के कारण हम अपनी वास्तविक प्रकृति से बाहर निकल जाते हैं या उसके प्रति विजातीय बन जाते हैं। बाह्य जगत् में खोए रहने के कारण हम गम्भीरताओं से दूर रहते हैं। वस्तु-रूपात्मक, शारीरिक और मानसिक जगत् से ऊपर उठकर हम स्वतंत्रता के जगत् में पहुंच जाते हैं।निराशी: इच्छाओं से रहित। दैनिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध में चिन्ता, धन कमाने और उसके व्यय करने की चिन्ता हमारे ध्यान को विचलित करती है और हमें आत्मिक जीवन से दूर ले जाती है। इसलिए हमसे कहा गया है कि हम इच्छाओं से और उनके कारण उत्पन्न होने वाली चिन्ताओं से, लोभ और भय से दूर रहें। साधक को चाहिए कि वह अपने-आप को मन मानसिक बेड़ियों से मुक्त कर ले और चित्र के सब विक्षेपों और संस्कारों से अपने-आप को पृथक् कर ले। उसे सब मानसिक रुचियों, सशक्त उद्देश्यों और परिवार तथा मित्रों के प्रति पे्रम से अपना सारा लगाव छोड़ देना चाहिए। उसे किसी वस्तु की प्रत्याशा न करनी चाहिए और न किसी वस्तु के लिए आग्रह ही करना चाहिए।अपरिग्रह: वस्तुओं का संग्रह करने की इच्छा से मुक्त। यह इच्छारहितता एक आध्यात्मिक दशा है, भौतिक दशा नहीं। हमें वस्तुओं पर अधिकार करने की लालसा को वश में करना चाहिए और अपने-आप को सम्बन्धित पदार्थों के मोह से मुक्त करना चाहिए। यदि कोई मनुष्य अशान्त हो और आत्मकेन्द्रित हो, यदि वह अहंकार, आत्मसंकल्प या वस्तुओं पर अधिकार की भावना से शासित हो, तो वह परमात्मा की आवाज को नहीं सुन सकता। गीता बताती है कि सच्चा तो वह परमात्मा की आवाज को नहीं सुन सकता। गीता बताती है कि सच्चा आनन्द आन्तरिक आनन्द है। यह हमारा ध्यान हमारे जीवन की उस पद्धति की ओर, मानवीय चेतना की उस दशा की ओर आकर्षित करती है, जो जीवन के बाह्य यन्त्रजात पर निर्भर नहीं है। शरीर मर सकता है और संसार नष्ट हो सकता है, परन्तु आत्मिक जीवन चिरस्थायी है। हमारा खजाना संसार की नश्वर वस्तुएं नहीं हैं, अपितु उस परमात्मा का ज्ञान और उसके प्रति प्रेम है, जो अनश्वर है। हमें आत्मा की आनन्ददायक स्वतंन्त्रता प्राप्त करने के लिए वस्तुओं की दासता से बाहर निकलना होगा।[१]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ईसा ने एक धनी आदमी से, जो कहता था कि वह धार्मिक आदेशों का पालन करता है, कहा थाः ’’फिर भी एक चीज तुममें नहीं है: जो कुछ तुम्हारे पास है, उस सबको बेच दो और गरीबों में बांट दो और इससे तुम्हें स्वर्ग में खजाना मिल जाएगा।’’ जब ईसा ने देखा कि यह सुनकर वह धनी आदमी बहुत उदास हो गया, तो उसने कहा: ’’जिनके पास धन है, उनके लिए परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर पाना बहुत कठिन होगा; क्योंकि ऊंट के लिए सुई के छेद में से गुजर जाना आसान है, किन्तु धनी व्यक्ति के लिए परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर पाना मुश्किल है।’’ -सेण्ट ल्यूक, 18, 18-23