भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 161

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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
19.यथा दीपो निवातस्थो नेगते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युज्जतो योगमात्मनः।।
जिस प्रकार वायुहीन स्थान में रखा हुआ दीपक कांपता नहीं है, वह ही उस योगी की उपमा माना गया है, जिसने चित्त को वश में कर लिया है और जो आत्मा के साथ संयोग का (या अपने-आप को अनुशासन में रखने का) अभ्यास कर रहा है।योगी का चित्त आत्मा में लीन रहता है। उड़ती झलकों या क्षणिक दर्शनों का आत्मा के अन्र्दर्शन के साथ घपला नहीं किया जाना चाहिए। आत्मा का अन्तर्दर्शन सब भ्रमों या मोहों के प्रति एकमात्र सुरक्षा है।
 
20.यतोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्चन्नात्मनि तुष्यति।।
जिसमें पहुंचकर एकाग्रता के अभ्यास द्वारा वश में किया गया चित्त शान्त हो जाता है और जिसमें वह आत्मा के द्वारा आत्मा को देखता है और आत्मा में आनन्द प्राप्त करता है;
 
 
21.सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वतः।।
जिसमें वह बुद्धि द्वारा ग्रहण किए जाने वाले और अतीन्द्रिय परम आनन्द को प्राप्त करता है और जिसमें स्थित होकर वह कभी तत्व से विचलित नहीं होता;देखिए कठोपरिषद् 3, 12। जहां एक ओर भगवान् इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान से परे है, वहां वह तर्क द्वारा ग्राह्य भी है; उस तर्क द्वारा नहीं, जो इन्द्रियों द्वारा दी गई जानकारी से सम्बन्धित है और उनके आधार पर धारणाएं बनाता है; अपितु उस तर्क द्वारा, जो कि अपने ही अधिकार से कार्य करता है। जब वह ऐसा करता है, तब उसे वस्तुओं का ज्ञान अप्रत्यक्ष रूप से, इन्द्रियों के माध्यम द्वारा या उन पर आधारित सम्बन्धों के माध्यम द्वारा नहीं होता, अपितु उनके साथ एकाकार हो जाने के द्वारा होता है। सारा सच्चा ज्ञान एकात्मीकरण द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान है।[१] भौतिक सम्पर्क या मानसिक प्रतीकों द्वारा ज्ञान प्राप्त होने वाला हमारा ज्ञान अप्रत्यक्ष और आनुमानिक होता है। धर्म परमात्मा का चिन्तन द्वारा हृदयंगम करना है।
 
22.यं लब्धतवा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।
जिसे प्राप्त करके वह समझता है कि इससे बड़ा और कोई लाभ नहीं है और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े दुःख से भी विचलित नहीं होता;

23.त विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो तोगोअनिर्विण्णचेतसा।।
उसको योग नामक वस्तु समझना चाहिए, जो दुःखों के साथ संयोग से अलग हो जाना है। इस योग का अभ्यास दृढ़ संकल्प और अनुद्विग्न चित्त से किया जाना चाहिए।10 से 22 तक के श्लोकों में मुक्ति को दृष्टि में रखते हुए मन को अपने लक्ष्य पर तीव्रता से एकाग्र करने की शिक्षा दी गई है। यह मुक्त आत्मा का उसकी अपनी परमता और एकान्त में विश्राम है। आत्मा आत्मा में ही आनन्द अनुभव करती है। यह सांख्य पुरुष का कैवल्य है, यद्यपि गीता में इसे परमात्मा के परमानन्द के साथ एकरूप कर दिया गया है।अनिर्विण्णचेतसा: निर्वेदरहितेन चेतसा। - शंकराचार्य। हमें योग का अभ्यास भावी दुःखों के विचार से उद्भूत प्रयत्न की शिथिलता से शून्य होकर करना चाहिए।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मधुसूदन ने यह श्लोक उद्धत किया है: समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्। न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते।।

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