भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 163

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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
29.सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
जो व्यक्ति योग द्वारा समस्वरता को प्राप्त हो जाता है, वह सब प्राणियों में आत्मा को निवास करते हुए सब प्राणियों को आत्मा में निवास करते हुए देखता है। वह सब जगह एक ही-सी वस्तु देखता है। यद्यपि आत्मा का दर्शन प्राप्त करने की प्रक्रिया में हमें बाह्म वस्तुओं से पीछे हट आना पड़ा था और आत्मा को संसार से पृथक् करना पड़ा था, परन्तु जब वह दर्शन प्राप्त हो जाता है, तब संसार फिर आत्मा में खिंच आता है। नैतिक स्तर पर इसका अर्थ यह है कि पहले संसार से वैराग्य होना चाहिए और ज बवह वैराग्य प्राप्त हो जाए, तब फिर प्रेम द्वारा और संसार के लिए कष्ट-सहन और बलिदान द्वारा उस संसार की ओर लौट आना चाहिए।पृथक्, सीमित आत्मा की भावना का उसकी आशाओं और आशंकाओं समेत तथा उसकी रुचियों और अरूचियों समेत विनाश हो जाता है।
 
30.यो तां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
जो मुझे सब जगह देखता है और जो सब वस्तुओं को मुझमें देखता है, उससे मैं कभी दूर नहीं होता और न वह ही कभी मुझसे दूर होता है।इन सुकुमार और प्रभावशाली शब्दों में, कि ’न मैं उससे दूर होता हूं और न वह ही कभी मुझसे दूर होता है, जिस पर जोर दिया गया है, वह व्यक्तिक रहस्यवाद है, जो अव्यक्तिक रहस्यवाद से बिलकुल भिन्न है। इस श्लोक में सब वस्तुओं की उस एक में, जो कि व्यक्तिक परमात्मा है, सुगम्भीर एकता की अनुभूति को प्रकट किया गया है। वह जितना ही अधिक अद्वितीय है, उतना ही सार्वभौम है। आत्मा जितनी गम्भीरतर होगी, उसका ज्ञान उतना ही विस्तृततर होगा। जब हम अपने अन्दर विद्यमान ब्रह्म के साथ एक हो जाते हैं, तब हम जीवन की समूची धारा के साथ एक हो जाते हैं।
 
31.सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोअपि स योगी मयि वर्तते।।
जो योगी एकत्व में स्थित होकर सब प्राणियों में स्थित मेरी उपासना करता है, वह कितना ही क्रियाशील क्यों न हो, फिर भी वह मुझमें ही निवास करता है।उसका बाह्य जीवन चाहे जैसा भी हो, परन्तु उसका आन्तरिक अस्तित्व परमात्मा में निवास करता है। मनुष्य का सच्चा जीवन उसका आन्तरिक जीवन ही है।
 
32.आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योअर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।
हे अर्जुन, जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को अपने जैसा ही समझकर समान दृष्टि से देखता है, चाहे वह स्वयं सुख में हो या दुःख में हो, यह पूर्ण योगीसमझा जाता है।आत्म-औपम्य का अर्थ है- अपने साथ अन्य सबकी समानता। जैसे वह अपना भला चाहता है, उसी तरह वह सबका भला चाहता है। वह सब वस्तुओं को परमात्मा में अंगीकार करता है, मनुष्यों को दिव्य जीवन की ओर ले जाता है और इस संसार में परमात्मा की शक्ति से और उसकी देदीप्यमान चेतना में कर्म करता है। वह किसी प्राणी को हानि नहीं पहुंचाता, जैसा कि शंकराचार्य के शब्दों मेः ’’वह इस बात को देखता है कि जो कुछ उसे प्रिय है, वही सब प्राणियों को प्रिय है और जिससे उसे कष्ट होता है, उससे सब प्राणियों को कष्ट होता है।’’[१] उसके बाद वह सुख और दुःख से कतराता नहीं । क्यों कि वह संसार में परमात्मा को देखता है, इसलिए वह किसी वस्तु से डरता नहीं, अपतिु आत्मिक समदर्शिता से सब वस्तुओं को अंगीकार करता जाता है। मन को वश में करना कठिन है, पर सम्भव है।
     


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यथा मम सुखम् इष्टं तथा सर्तप्राणिनां सुखम् अनुकूलम्, यदि वा यच्च दुःखं मम प्रतिकूलम् अनष्टिम् यथा तथा सर्वप्राणिनां दुःखम् अनिष्टम् ’’’ न कस्यतिचत् प्रतिकूलम् आचरति अहिंसक इत्यर्थः।

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