भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 162
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं
24.सकंल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।।
निरपवाद रूप से (स्वार्थपूर्ण) संकल्प से उत्पन्न हुई सब इच्छाओं का परित्याग करके और सब इन्द्रियों को सब ओर से मन द्वारा वश में करते हुए;
25.शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचदपि चिन्तयेत्।।
वह स्थिरता द्वारा नियन्त्रित बुद्धि से और मन को आत्मा में स्थिर करके धीरे-धीरे प्रशान्तता को प्राप्त करे और वह (अन्य) किसी वस्तु का भी विचार न करे।
26.यतो यतो निश्चरति मनश्चच्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येब वशं नयेत्।।
चंचल और अस्थिर मन जिस-जिस ओर भी भागने लगे, वह उसे काबू में करे और फिर केवल आत्मा के वश में वापस ले आए।
27.प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्ततम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।
सर्वोत्तम सुख उस योगी को प्राप्त होता है, जिसका मन शान्त है, जिसके आवेश (रजोगुण) शान्त हो गए हैं, जो निष्पाप है और परमात्मा के साथ एक हो गया है।ब्रह्मभूतम्: परमात्मा के साथ एकाकार। हम जो कुछ देखते हैं, श्रंगीकीटन्याय से वही बन जाते हैं। जैसे अंजनहारी भौरे से डरकर भौंरे के विषय में इतनी तीव्रता से सोचने लगती है कि वह स्वयं ही भौंरा बन जाती है, उसी प्रकार उपासक अपनी उपासना के उद्देश्य (उपास्य) के साथ एकाकार हो जाता है।ब्रह्मत्वं प्राप्तम्। श्रीधर। [१] प्रगति शरीर, प्राण और मन को शुद्ध करने का ही नाम है। जब यह बाहरी ढांचा पूर्ण हो जाता है, तब ज्योति निर्बाध रूप से दमकने लगती है।
28.युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।
इस प्रकार वह योगी, जिसने सब पापों को दूर कर दिया है, आत्मा को सदा योग में लगाता हुआ सरलता से ब्रह्म के संस्पर्श से होने वाले परम सुख का अनुभव करता है।ब्रह्मसंस्पर्शम्: ब्रह्म के साथ सम्पर्क। इसके बाद परमात्मा केवल एक किंवदन्ती, एक अस्पष्ट-सी महत्वाकांक्षा, शेष नहीं रहता, अपितु एक सुस्पष्ट वास्तविकता बन जाता है, जिसके हम वास्तविक सम्पर्क में आ जाते हैं। धर्म तर्क का विषय नहीं, अपितु एक अनुभवसिद्ध सत्य है। यहां बुद्धि की गुंजाइश है और वह इस तथ्य की तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत कर सकती है। परन्तु यदि तर्क तथ्य की दृढ़ नींव पर आधारित हो, तो वह असंगत बन जाता है।इससे अतिरिक्त धार्मिक अनुभव के ये तथ्य देश और काल की दृष्टि से सार्वभौम हैं। वे संसार के विभिन्न भागों में और इतिहास के विभिन्न कालों में पाए जाते हैं और इस प्रकार मानवीय आत्मा की साग्रह एकता और महत्वाकांक्षा को प्रमाणित करते हैं। हिन्दू और बौद्ध मुनियों के, सुकरात और प्लेटो के, फाइलो और प्लौटिनस के और ईसाई तथा मुस्लिम रहस्यवादियों के प्रबोधन एक ही परिवार के अंग हैं। हालांकि धर्म विज्ञानियों ने उनके कारण बताने के जो प्रयत्न किए हैं, उनमें जातियों और कालों की स्वभावगत विशेषताएं प्रतिविम्बित होती हैं।आगे वाले श्लोक में गुरु आदर्श योगी के लक्षणों का वर्णन करता है। उसका चित्त उसके वश में होता है; वह इच्छाओं को त्याग चुका होता है और
वह केवल आत्मा के चिन्तन में लगा रहता है और दुःख के स्पर्श से अलग रहता है और वह परब्रह्म के साथ एक हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नीलकण्ठ का मत है यह सम्प्रज्ञात समाधि की ही एक दशा है और वह योगभाष्य को उद्धृत करता हैः यस्त्वेकागे्र चेतसि सद्भेतम् अर्थ प्रद्योतयति कर्मबन्धनानि श्लथर्या निरोधम् अभिमुखीकरोति क्षिणोति च क्लेशान् स सम्प्रज्ञातो योग इत्याख्यायते।