भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 176

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अध्याय-8
विश्व के विकास का क्रम अर्जुन प्रश्न करता है

   
अर्जुन उवाच
1.किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।
अर्जुन ने पूछाः ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? और हे पुरुषोत्तम, कर्म क्या है? भूतों का (तत्वों का) क्षेत्र कौन-सा कहा जाता है? देवताओं का क्षेत्र कौन-सा कहा जाता है? आत्मा में विद्यमान वस्तु क्या है (अध्यात्मम्)? देवताओं में विद्यमान वस्तु क्या है (अधिदैवम्)? यज्ञ में विद्यमान वस्तु क्या है (अधियज्ञम्)? सब भूतों में विद्यमान वस्तु क्या है (अधिभूतम्)? इन सब प्रश्नों का उत्तर यह है कि परम आत्मा सब सिरजी गई वस्तुओं, सब यज्ञों, सब देवताओं और सब कर्मों में व्याप्त है। ये सब केवल भगवान् की विविध अभिव्यक्तियां हैं।[१]
 
2.अधियज्ञः कथं कोअत्र देहेअस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले कथं ज्ञेयोअसि नियतात्मभिः।।
(2) हे मधुसूदन (कृष्ण), इस शरीर में यज्ञ का क्षेत्र (अंश) कौन-सा है और कैसे? फिर जिस व्यक्ति ने अपने-आप को वश में कर लिया है, वह इस संसार से प्रस्थान के समय तुझको किस प्रकार जान जाएगा?आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले लोगों को मृत्यु के समय तुम्हारा ज्ञान किस प्रकार होता हैकृष्ण उत्तर देता है

श्री भगवानुवाच
3.अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोअध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्धयवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।।
श्री भगवान् ने कहा:
ब्रह्म (या परम) अनश्वर है, सर्वाच्च (अन्य सब वस्तुओं से उच्चतर) है। स्वभाव को ही आत्मा कहा जाता है। कर्म उस सृजनशील शक्ति का नाम है, जो सब वस्तुओं को अस्तित्व में लाने का कारण है। स्वभाव: ब्रह्म जीव का रूप धारण कर लेता है; अध्याय 15, 7 ।[२]अध्याय: शरीर का स्वामी, उपभोक्ता। [३] यह ब्रह्म की वह प्रावस्था है, जो वैयक्तिक आत्मा बनती है।
ब्रह्म एक अपरिवर्तनशील स्वतः अस्तित्व है, जिस पर वे सब वस्तुएं- जो जीती हैं, गति करती हैं और जिनका अस्तित्व है- आधारित हैं। आत्म मनुष्य और प्रकृति में विद्यमान आत्मा है। कर्म वह सृजनशील संवेग है, जिससे जीवन के रूप उद्भूत होते हैं। विश्व का समूचा विकास कर्म कहलाता है। भगवान इसे शुरू करता है और कोई कारण नहीं कि वैयक्तिक जीव इसमें भाग न ले। अपरिवर्तनशील ब्रह्म, जो कर्तव्य और वस्तु-रूपात्मकता के सब द्वन्द्वों से ऊपर है, विश्व के प्रयोजन की दृष्टि से नित्य कर्ता, अध्यात्म बन जाता है, जो नित्य वस्तु- रूप के - जो कि प्रकृति का परिवर्तनशील अंश है, जो सब रूपों का आधार है- मुकाबले में होता है, जब कि कर्म सृजनशील शक्ति है, गतिविधि का मूल तत्व। ये सब स्वाधीन नहीं हैं, अपितु एक ही भगवान् के विभिन्न प्रकट-रूप हैं। कर्ता और वस्तु-रूप की परस्पर क्रिया, जो कि विश्व का केन्द्रीय आदर्श है, ब्रह्म, परमात्मा की अभिव्यक्ति है, जो कर्ता और और वस्तु-रूप के भेदभाव से ऊपर है। माण्डूक्य उपनिषद् में इस बात को जोर देकर कहा गया है कि जहां परब्रह्म अनिर्वचनीय और निर्गुण[४]है, वहां जीवित परमात्मा संसार का शासक है, अन्तर्यामी आत्मा।[५] ब्रह्म और ईश्वर, परब्रह्म और व्यक्तिक परमात्मा का अन्तर उपनिषद् में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। व्यक्तिक परमात्मा विश्व का स्वामी है, जब कि ब्रह्म विश्वोत्तर वास्तविकता है।

4.अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञाअहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
सब सिरजी गई वस्तुओं का आधार परिवर्तनशील प्रकृति हैः दैवीय तत्वों का आधार विश्व की आत्मा है। और सब यज्ञों का आधार, हे शरीर धारियों में श्रेष्ठ (अर्जुन), इस शरीर में मैं स्वयं ही हूं।यहां फिर लेखक यह चाहता है कि हम ब्रह्म का उसके सब पहलुओं की दृष्टि से अखण्ड ज्ञान प्राप्त करें। एक अपरिवर्तनशील दिव्य शक्ति है ब्रह्म; एक व्यक्तिक परमात्मा है ईश्वर, जो सम्पूर्ण भक्ति का पात्र है; एक विश्वात्मा, हिरण्यगर्भ, जो विश्व का अध्यक्ष देवता है; और व्यक्तिक आत्मा जीव है, जो ब्रह्म के उच्चतर स्वभाव और परिवर्तनशील प्रकृति में सहयोग देता है। देखिए 7, 4। मृत्यु के क्षम में आत्मा का ध्यान जहां रहता है, वहीं वह पहुंचती है

5.अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्धावं याति नास्त्यत्र संशयः।।
मृत्यु के समय जो कोई केवल मेरा ध्यान करता हुआ अपे शरीर का त्याग करके इस संसार से प्रयाण करता है, वह मेरे पद को प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
इस श्लोक में फिर 7, 30 में कही गई बात को उठाया गया है। उपनिषदो में मृत्यु के क्षम में विद्यमान मन की दशा के महत्व पर बहुत जोर दिया गया है। छान्दोग्य, 3, 14, 1; प्रश्न उपनिषद्, 3, 10। हम अन्तिम क्षणों में परमात्मा का विचार केवल तभी कार पाएंगे, जब कि हम पहले भी उसके भक्त रहे हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैव रूपान्तराणि। - अभिनवगुप्त।
  2. स्वस्य एव ब्रह्मण एव अंशतया जीवरूपेण भवनं स्वभावः। - श्रीधर।
  3. स एवात्मानं देहमधिकृत्य भोक्तृत्वेन वर्तमानोअध्यात्मशब्देनोच्यते। - श्रीधर।
  4. अदृष्टम्, अव्यवहार्यम् अग्राह्यम्, अलक्षमणम्, अचिन्त्यम्, अव्यपदेश्यम्, एकात्मप्रत्ययसारम् प्रपच्चोपशमम्, शान्तम् शिवम्, अद्वैतम्। 7
  5. एष सवैश्वर, एष सर्वज्ञ, एषोअन्तर्यामी येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्। 6

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