भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 177

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अध्याय-8
विश्व के विकास का क्रम अर्जुन प्रश्न करता है

   
6.यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
त तमेवैति कौन्तेय सदा तद्धावभावितः।।
हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), अन्तिम समय में मनुष्य जिस-जिस (अस्तित्व) की दशा का ध्यान करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसके ध्यान में सदा मग्न रहता हुआ उस दशा को ही प्राप्त करता है।सदा तद्भावभावितः: सदा उसके विचार में मग्न रहता हुआ।केवल अन्तिम क्षण की आकस्मिक कल्पना नहीं, अपितु सम्पूर्ण जीवन का अनवरत प्रयत्न वह वस्तु है, जो भविष्य का निर्णय करती है।तद्भावभावितः: शब्दशः इसका अर्थ है- उसकी दशा (भाव) में पहुंचाया गया (भावितः)। आत्मा उसी दशा को प्राप्त होती है, जिसका कि वह अन्तिम क्षणों में ध्यान कर रही होती है। हम जो कुछ सोचते हैं, वहीं बन जाते हैं। हमारे अतीत के विचारों से हमारे वर्तमान जन्म का निर्धारण हुआ है और हमारे वर्तमान विचारों से भविष्य के जन्म का निर्धारण होगा।

7.तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनो बुद्धिर्मामेवैष्यसंशयम् ।।
इसलिए तू सदा मुझे याद कर और युद्ध कर। जब तेरा मन और बुद्धि मेरी ओर एकाग्र रहेंगे, तो तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।
सर्वषु कालेषु: सब समय। केवल उसी दशा में हम संक्रान्तिमय अन्तिम क्षणों में परमात्मा का ध्यान कर पाने में समर्थ होंगे।- श्रीधर।माम् अनुस्मर युद्ध च: मुझे याद रख और युद्ध कर। यह युद्ध, जिसका यहां संकेत करना अभीष्ट है, भौतिक स्तर पर नहीं है, क्योंकि वह युद्ध सदा नहीं किया जा सकता। यह तो अन्धकार की शक्तियों के विरुद्ध युद्ध है, जिसे हमें निरन्तर जारी रखना है।हमें शाश्वता की अपनी चेतना को बनाए रखते हुए और अपरिवर्तनशील परमात्मा के सान्निध्य में रहते हुए संसार के कार्य में लगे रहना चाहिए। ’’जैसे नर्तकी जब विभिन्न लयों के अनुसार नृत्य कर रही होती है, तब भी वह अपना ध्यान अपने सिर पर रखे हुए घड़े पर केन्द्रित रखती है, उसी प्रकार सच्चा धर्मात्मा मनुष्य अनेक कार्यों को करते हुए भी परमेश्वर के चरणकमलों के ध्यान को कभी नहीं छोड़ता। ’’[१] हमें जीवन के सब कर्मों को उस परमात्मा के प्रति अर्पित कर देना होगा, जो हमारे जीवन को सब ओर से घेरे हुए है, जीवन में अन्दर घुसा हुआ है और उस जीवन को सार्थक बनाता है। केवल परमात्मा का स्मरणमात्र ही सब कार्यों को पवित्र बना देता है। तुलना कीजिएः ’’मैं भ्रमातीत (अच्युत) भगवान् को प्रणाम करता हू। उसका ध्यान करने से या उसका नाम जपने से तप, यज्ञ और क्रियाओं में हुई सब त्रुटियां दूर हो जाती हैं। ’’[२]

8.अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानिचिन्तयन्।।
हे पार्थ (अर्जुन), जो व्यक्ति निरन्तर अभ्यास द्वारा चित्त को योग में लगाकर उस परम पुरुष का ध्यान करता है, और अपने चित्त को कहीं भटकने नहीं देता, वह अवश्य ही उस दिव्य और सर्वाच्च पुरुष को प्राप्त करता है।
मृत्यु-शय्या पर किया जाने वाले पश्चात्ताप हमारी रक्षा नहीं कर सकेगा, अपितु निरन्तर अभ्यास और भगवान् के प्रति अविचल समर्पण द्वारा हमारा उद्धार होगा।

9.कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमपनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।।
जो व्यक्ति उस द्रष्टा (कवि), उस पुरातन शासक का ध्यान करता है, जो कि सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और सबका धारण करने वाला है, जिसके रूप का ध्यान भी नहीं किया जा सकता और जो अन्धकार से परे सूर्य के समान रंग वाला है; देखिए श्वेताश्वतर उपनिषद्, 3, 18।कवि: द्रष्टा, देखने वाला। यहां इसका अर्थ है सर्वज्ञ। [३]यहां सम्बन्धरहित, अपरिवर्तनशील ब्रह्म का वर्णन नहीं है, अपितु ईश्वर का वर्णन है, जो कि व्यक्तिक परमात्मा है, द्रष्टा है, स्त्रष्टा है और विश्व का शासक है। वह अन्धकार का विरोधी प्रकाश है। [४]

10.प्रयाणकाले मनसाचलेन,
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भु्रवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्,
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
जो व्यक्ति इस संसार के प्रस्थान के समय मन को भक्ति और योगबल से स्थिर करके और अपनी प्राणशक्ति को भौंहों के मध्य में भलीभांति स्थापित करके वैसा करता है, वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त होता है।स्पष्ट है कि ऐसा कर पाना केवल उन लोगों के लिए ही सम्भव है, जो योग की शक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के समय का चुनाव स्वयं करते हैं। [५]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुड़्खानुपुड़्खविषयानुपसेवमानो धीरो न मुच्चति मुकुन्दपराविन्दम्। सड्गीतवाद्यलयतालवशंगतापि मौलिकस्थकुम्भपरिरक्षणधीर्नटीव ।।
  2. यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
  3. कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञम्। - शंकराचार्य।
  4. प्रकर्षरूपत्वेन तमोविरोधिनम्। - मधुसूदन।
  5. योगेनान्ते तनुत्यजाम्। - कालिदास; रघुवंश 1,8

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