भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 178

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अध्याय-8
विश्व के विकास का क्रम अर्जुन प्रश्न करता है

   
11.यदक्षरं वेदविदो वदन्ति,
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति,
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।
मैं संक्षेप में तेरे सामने उस दशा का वर्णन करता हूं, जिसे वेद को जानने वाले अनश्वर (अक्षर) कहते हैं; वीतराग मुनि लोग जिसमें प्रवेश करते हैं और जिसकी कामना से वे ब्रह्मचर्य का जीवन बिताते हैं।देखिए कठोरपनिषद्, 2, 15। ’’जिस शब्द का सब वेद जाप करते हैं और स बतप जिसकी घोषणा करत हैं और जिसकी कामना करते हुए धार्मिक जिज्ञासा वाले व्यक्ति जीवन बिताते हैं- वह शब्द मैं संक्षेप में तुझे बताए देता हूं।’’ ईश्वरवादी लोग इसे सर्वोच्च स्वर्ग, ’विष्णु का परम स्थान, समझते हैं; विष्णोः परम पदम्।
 
12.सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
 मूर्ध्या धायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।
शरीर के सब द्वारों को संयम में रखकर, मन को हृदय में रोककर, प्राणशक्ति को मूर्धा (सिर) में स्थिर करके और योग द्वारा एकाग्र होकर;
शरीर को द्वारों वाली नगरी कहा जाता है: 5, 13। हृदय में रोके गए मन से अभिप्राय है कि वह मन, जिसके कार्यां को रोक दिया गया है। योगशास्त्र में बताया गया है कि जो आत्मा हृदय से सुषुम्ना नाड़ी में से होकर सिर मे स्थित ब्रह्मरन्ध्र तक पहुंचती है और वहां से निकलती है, वह परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है।

13.ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।
और जो एक अक्षर ओउम् (जो कि ब्रह्म है) का उच्चारण करता हुआ मुझे स्मरण करता हुआ अपने शरीर को त्यागकर इस संसार से प्रयाण करता है, वह उच्चतम लक्ष्य (परम गति) को प्राप्त होता है।’ओउम्’ शब्द उस ब्रह्म का प्रतीक है, जिसे किसी प्रकार अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता ।
मम् अनुस्मरन्: मुझे याद करता हुआ। उच्चतम स्थिति, योगसूत्र के अनुसार, परमात्मा की उपासना द्वारा प्राप्त की जा सकती है। [१]

14.अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
जो मुनष्य अन्य किसी वस्तु का ध्यान न करता हुआ निरन्तर मेरा ही स्मरण करता है, वह अनुशासित योगी (या वह, जो भगवान् के साथ मिलकर एक हो गया है) मुझे सरलता से प्राप्त कर लेता है।
 
15.मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति माहत्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।
मुझे तक पहुंच जाने के बाद वे महान् आत्माएं पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करती, जो दुःख का घर है और अस्थायी है, क्योच किं आत्माएं परम सिद्धि को प्राप्त कर चुकी होती हैं।9, 33 की टिप्पणी देखिए।
 
16.आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोअर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।
ब्रह्म के लोक से लेकर नीचे के सब लोक ऐसे हैं, जिनसे फिर पुनर्जन्म की ओर लौटना होता है। परन्तु हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), मुझ तक पहुंच जाने के बाद फिर किसी को पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता।सब लोक परिवर्तन के वशवर्ती हैं।[२]

17.सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेअहोरात्रविरो जनाः।।
जो लोग इस बात को जान लेते हैं कि ब्रह्म का एक दिन एक हजार युगों की अवधि का होता है और यह कि ब्रह्म की रात्रि एक हजार युग लम्बी होती है, वे दिन और रात को जानने वाले व्यक्ति हैं।दिन विश्व की अभिव्यक्ति का काल है और रात्रि अनभिव्यक्ति का काल। ये दोनों समान अवधि के हैं और एक के पश्चात् एक आने वाले हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समाधिसिद्धरीश्वरप्रणिधानात्।
  2. पुनरावर्तिनः कालपरिच्छिन्नत्वात्। -शंकराचार्य।

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