भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 190

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है सबसे बड़ा रहस्य

   
31.क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तये प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।
वह जल्दी ही धर्मात्मा बन जाता है और उसे चिरस्थायी शान्ति प्राप्त हो जाती है। हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), इा बात को निश्चित रूप से समझ ले कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। [१]
यदि हम अपने-आप को परमात्मा के हाथों में छोड़ दें, तो हम नितान्त अन्धकार में नहीं पड़ सकते।राम की उक्ति से तुलना कीजिए: ’’ जो एक बार भी मेरी शरण में आना चाहता है और ’मै तुम्हारा हूं’’ कहकर मुझसे सहायता की प्रार्थना करता है, उसे मैं सब प्राणियों से अभय प्रदान करता हू; यह मेरा व्रत है।’’[२]
 
32.मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येअपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियों वैश्यास्तथा शूद्रास्तेअपि यान्ति परां गतिम्।।
हे पार्थ (अर्जुन), जो लोग मेरी शरण ले लेते हैं, चाहे वे नीच कुलों में उत्पन्न हुए हों, स्त्रियां हों, वैश्य हों या शूद्र हों, वे भी उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।गीता का सन्देश जाति, लिंग या उपविजेताओं के भेदभाव के बिना सबके लिए खुला है। इस श्लोक का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह स्त्रियों और शूद्रों के लिए वेदाध्ययन का निषेध करने वाली सामाजिक प्रथाओं का समर्थक है। इसमें तो जिस समय गीता लिखी जा रही थी, उस काल में प्रचलित दृष्टिकोण का निर्देश-भर किया गया है। गीता इस प्रकार के सामाजिक नियमों को स्वीकार नहीं करती।[३]आध्यात्मिक मान्यताओं पर जोर देने के कारण गीता जातीय भेदभाव से ऊपर उठ जाती है। इसका प्रेम का सन्देश सब पुरुषों और स्त्रियों, सवर्णों और अन्त्यजों के लिए खुला हुआ है। [४]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रतिजानीहि प्रतिज्ञां कुरु मद्भक्तो न प्रणश्यति।
  2. सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम।।
  3. प्राचीन काल में हिन्दुओं का असभ्य समझने की प्रवृत्ति थी, हालांकि अपने-आप को श्रेष्ठ समझने की यह मनोवृत्ति केवल हिन्दुओं तक ही सीमित नहीं थी। प्राचीन काल के यूनानी विदेशियों को जंगली समझते थे। रोमन सेनापति कुण्टिलियन वैरस ने जर्मेनिया के निवासियों के विषय में कहा था: ’’यह ठीक है कि वे मनुष्य हैं, परन्तु आवाज और शरीर के अंगों के सिवाय उनमें मनुष्य का और कोई अंश नहीं है। ’’फ्रांसीसी दार्शनिक मौन्तेस्क्यू (1689-1755) ने हब्शियों के विषय में कहा था: ’’कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि परमात्मा ने, जो कि इतना बुद्धिमान् है, एक बिलकुल काले शरीर में कोई आत्मा, और वह भी अमर आत्मा, डाली होगी। यह सोच पाना असम्भव है कि ये लोग मानव-प्राणी हैं।’’
  4. यह विचार प्रत्येक विवेकशील हिन्दू के लिए बहुत अपमान और लज्जा का विषय है कि कई बार अस्पृश्यता को उचित ठहराने का प्रयत्न किया जाता है। बुद्ध ने अन्त्यजों का अपने संघ में स्वागत किया था। रामायण में एक ऐसे व्यक्ति ने राम को अपनी नाम में बैठाकर गंगा के पार उतारा था, जिसे आजकल अछूत समझा जाता है। भक्ति के महान् उपदेशकों, शैवों और वैष्णवों ने समानता स्थापित करने के लिए प्रयत्न किया और घोषणा की कि भगवान् में विश्वास रखने वाले सबसे श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, भले ही उनका जन्म किसी भी कुल में क्यों न हुआ हो। चाण्डालोअपि द्विजश्रेष्ठः हरिभक्तिपरायणात्। चैतन्य के अनुयायियों में हिन्दू और मुसलमान, डाकू और वेश्याएं- सब थे।

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