भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 191
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है सबसे बड़ा रहस्य
33.किं पुनब्र्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।
फिर पवित्र ब्राह्मणों और भक्त राजर्षियों का तो कहना ही क्या! इस अस्थायी और दुःखपूर्ण संसार में आकर अब तू तेरी पूजा कर।दूसरे शब्दों में, जब वे लोग भी, जो कि अपने अतीत के जन्मों के कारण अनेक अयोग्यताओं के शिकार हैं और सांसारिक धन्धों में फंसे हैं, अपनी दुर्बलताओं को जीत सकते हैं और उच्चतम पद प्राप्त कर सकते हैं, तब वह मार्ग उन ब्राह्मणों और राजर्षियों के लिए तो और भी सरल होगा, जो पहले से ही आध्यात्मिक वृत्ति वाले हैं।अनित्यम् असुखं लोकम्: अस्थायी कष्टपूर्ण संसार। औफिंक लोगों की दृष्टि में इस संसार का जीवन कष्ट और परेशानी ही है। हम एक चक्र के साथ बंधे हुए हैं, जो जन्म और मरण के अनन्त चक्करों में घूम रहा है। केवल अपने-आप को पवित्र बनाकर और त्याग द्वारा हम इस चक्र से छूट सकते हैं और परमात्मा के साथ संयोग का सुख प्राप्त कर सकते हैं। जॉन बनैंट ने और्फिक (और्फियस के सिद्धान्त से सम्बन्धित) विश्वासों और लगभग उसी काल में भारत में प्रचलित विश्वासों में पाई जाने वाली आश्चर्यजनक समानता का निर्देश किया है। ’अर्ली ग्रीक फिलासफी’ (1930), पृष्ठ 82। बुद्ध की शिक्षाओं का प्रारम्भ ही विश्व की इन दो विशेषताओं, इसकी अस्थायिता और दुःख द्वारा हुआ है।[१] एक ईरानी उक्ति है, जो ईसा द्वारा कही गई बर्ताइ जाती हैः ’’संसार एक पुल है। इसके ऊपर से गजर जाओ, परन्तु इस पर घर मत बनाओ।’’ न केवल यह संसार, अपितु विश्व की प्रक्रिया की प्रत्येक प्रावस्था (दौर), मानवीय इतिहास का प्रत्येक पहलू, मानवीय जीवन का प्रत्येक सोपान- शैशव की ताजगी, बालकपन का अक्खड़पन, यौवन का आदर्शवाद, किशोरावस्था के उग्र आवेश और पौरुष की महत्वाकांक्षाएं, सब पुल हैं, जिनका प्रयोजन यह है कि उनके ऊपर से गुजर जाया जाए, न कि उन पर स्थायी रूप से बस जाया जाए। आधुनिक विज्ञान बताता है कि मानवीय जीवन कितना दयनीय रूप से मर्यादित है। जां पाल सात्र् के अस्तित्ववाद के सिद्धान्त में यह मान लिया गया है कि मानवीय अस्तित्व कुछ स्थायी दशाओं का वशवर्ती है। हममें से प्रत्येक उत्पन्न होता है; एक ऐसी वास्तविकता में उलझा रहता है, जो उस व्यक्ति पर निर्भर नहीं है; अन्य लोगों पर अपनी क्रिया करता है और दूसरों की क्रियाओं द्वारा प्रभावित होता है। वह मृत्यु से बच नहीं सकता। यदि इन सब दशाओं को एक साथ मिलाकर देखा जाए, तो मानवीय अस्तित्व एक दुःखान्त वास्तविकता बन जाता है। हममें से प्रत्येक को इस निराशाजनक दशा में अपने उद्धार के लिए अपने संकल्प के प्रयत्न द्वारा कार्य करना होगा। अस्तित्ववादी की दृष्टि में, मनुष्य को अपने साधनों के सहारे छोड़ दिया गया है। उसे परमात्मा की क्षणभंगुरता और वृद्धावस्था और मृत्यु के अभिशाप से बचने के लिए, जरामरणोक्षाय[२] , एक मार्ग दिखाता है। वह हमें भगवान् की शरण लेने की कहता है।
34.मन्मना भवमद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।
अपने मन को मुझमें स्थिर कर; मेरा भक्त बन; मेरी पूजा कर; मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार अपने-आप को अनुशासन में रखते हुए मुझे अपना लक्ष्य बनाकर तू मुझ तक पहुंच जाएगा।
यह व्यक्तिक कृष्ण नहीं है, जिसके प्रति हमें अपने-आप को पूरी तरह से समर्पित कर देना है, अपितु अजन्मा, अनादि और नित्य ब्रह्म है, जो कृष्ण के मुंह से बोल रहा है। अपनी अहंकारकेन्द्रित चेतना, से ब्रह्म के स्तर तक ऊपर उठने का मार्ग यही है कि हम अपनी बौद्धिक, मनोवेगात्मक और संकल्पात्मक शक्तियां को परमात्मा में केन्द्रित कर दें। उस दशा में हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व रूपान्तरित हो जाता है और आत्मा की एकता और विश्वजनीनता तक ऊपर उठ जाता है। ज्ञान, प्रेम और शक्ति एक सर्वोच्च एकता में मिल जाती है। आनन्द और शान्ति आत्मविलोप का, पूर्ण आत्मत्याग का और परम अंगीकरण का परिणाम हैं।
इति ’ ’ ’ राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोअध्यायः।
यह है ’सर्वोच्च ज्ञान और सर्वोच्च रहस्य’ नामक नौवां अध्याय।
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