भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 198
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीतता
33.अक्षराणामकरोअस्मि द्वन्द्वः सामसिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।।
अक्षरों में मैं ’अ’ अक्षर हूं और समासों में मैं द्वन्द्व समास हूं; मैं ही अनश्वरकाल हू और मैं ही वह विधाता हूं, जिसके मुख सब दिशाओं में विद्यमान हैं।काल: समय। तुलना कीजिए: कालस्वरूपी भगवान् कृष्णः। विष्णुपुराण, 5, 38।
34. मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्धवश्च भविष्यचताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्य नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।
मैं सबको निगल जाने वाली मृत्यु हूं और मैं भविष्य में होने वाली सब वस्तुओं का उद्गम हूं; नारियों में कीर्ति, लक्ष्मी, वाणी, स्मृति, बुद्धि, दृढ़ता और क्षमा (धीरता) हूं।
35.बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोअहमृतूनां कुसुमाकरः।।
इसी प्रकार साम (गीतों) में मैं बृहत् साम हूं; छन्दों में मैं गायत्री हूं; महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूं और ऋतुओं में मैं कुसुमाकर (फूलों की खान, वसन्त) हूं।
36.द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोअस्मि व्यवसायोअस्मि सत्वं सत्ववतामहम्।।
(36) छलने वालों का मैं जूआ (द्यूत) हूं; मैं तेजस्वियों का तेज हूं; मैं विजय हूं, मैं प्रयत्न हू और अच्छे लोगों में मैं अच्छाई हूं।
37.वृष्णीनां वासुदेवोअस्मि पाण्डवानां धनज्जयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।
वृष्णियों में मैं वासुदेव हू; पाण्डवों मे मैं धनजय (अर्जुन) हूं; मुनियों में मैं व्यास हूं और कवियों में मैं उशना कवि हूं।
38.दण्डो दमयतास्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।
दमन करने वालों का मैं (सजा देने का) दण्ड हूं; जो लोग विजय प्राप्त करना चाहते हैं, उनकी मैं नीति हूं; रहस्यपूर्ण वस्तुओं में मैं मौन हूं और ज्ञानियों का मैं ज्ञान हूं।
39.यच्चापि सर्वभूतानां बींज तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भुतं चराचरम्।।
(39) हे अर्जुन, सब बस्तुओं का जो भी कुछ बीज है, वह मैं हूं; चराचर वस्तुओं में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मेरे बिना रह सके।[१]
40. नान्तोअस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।
हे शत्रु को जीतने वाले (अर्जुन), मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। जो कुछ मैंने तुझे बताया है, वह तो मेरी असीम महिमा का केवल निदर्शनमात्र है।
41.यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमद्र्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोअशसंभवम्।।
जो भी कोई प्राणी गौरव, चारुता और शक्ति से युक्त है, तू समझ ले कि वह मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ है।यों तो सभी वस्तुओं को परमात्मा ने संभाला हुआ है, परन्तु सुन्दर और तेजस्वी वस्तुओं में परमात्मा अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक स्पष्टतया प्रकट होता है। वीरता का प्रत्येक कार्य, बलिदान का प्रत्येक जीवन और प्रतिभा का प्रत्येक कार्य ब्रह्म की ही एक अभिव्यक्ति है। मानवीय जीवन के काव्यपूर्ण क्षण मनुष्य के सीमित मन से इतने परे की वस्तु हैं कि उनकी व्याख्या ही नहीं की जा सकती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ द्रौपदी की उक्ति से तुलना कीजिएः मत्र्यता चैव भूतानाममरत्वं दिवौकसाम्। त्वयि सर्व महाबाहो लोकार्यं प्रतिष्ठितम्।।