भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 201
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है
8.न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्च मे योगमैश्वरम्।।
परन्तु तू मुझे अपनी इन (मानवीय) आखों से नहीं देख पाएगा; मैं तुझे दिव्य दृष्टि देता हूं। तू मेरी दिव्य शक्ति को देख।कोई भी पार्थिव आंख सर्वोच्च रूप को नहीं देख सकती। मानवीय आंख ऐसे अत्यधिक प्रकाश को देखने के लिए नहीं बनी। मांसचक्षु मांस की बनी हुई आंख है, जब कि दिव्य चक्षु दैवीय आंख है।[१]मानवीय आंख केवल बाह्य रूपों को देख सकती है; आन्तरिक आत्मा का ज्ञान आत्मिक आंख से होता है। एक प्रकार का ज्ञान ऐसा होता है, जिसे हम अपने प्रयत्नों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं-इन्द्रियों द्वारा प्रदत्त अनुभव और बौद्धिक अगतिविध पर आधारित ज्ञान। एक और प्रकार का ज्ञान उस समय हो सकता है, जब कि हम चारुता के प्रभाव के अधीन हों- आत्मिक वास्तविकताओं का प्रत्यक्ष ज्ञान। देवता का दर्शन देवता की ही एक देन है। यह सारा विवरण दिव्य प्रकृति में नानाविध विश्व की एकता को सूचित करने का एक काव्यपूर्ण ढंग है।
संजय द्वारा दिव्य रूप का वर्णन
संजय उवाच
9.एकमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।
महाराज, इस प्रकार कहकर महान् योगेश्वर हरि (कृष्ण) ने अर्जुन के सम्मुख अपना सर्वोच्च और दिव्य रूप प्रकट किया।
यह कृष्ण का दिव्य रूपान्तर है, जिसमें कि अर्जुन स्वर्ग और पृथ्वी के सब प्राणियों को दिव्य रूप में देखता है।
10.अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।
वह रूप अनेक मुखों और आंखों वाला था, उसमें अनेक आश्चर्यजनक दृश्य थे। उसने अनेक दिव्य आभूषण धारण किए हुए थे और उसने अनेक दिव्य शास्त्र उठाए हुए थे।यहां पर ऐसा प्रतीत होता है कि कवि उस अनुभव का वर्णन करने के प्रयत्न में जो कि वस्तुतः अवर्णनीय है, शब्दों की कमी और वाणी की अपूर्णता का अनुभव कर रहा है। अनेकवकानयनम्: अनेक मुखों और आंखों वाला। वह सबको निगल जाने वाला और सबको देखने वाला है।ये सार्वभौम सत्ता के वर्णन हैं। पुरुषसूक्त में भी इससे मिलता-जुलता वर्णन प्राप्त होता है। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् (ऋग्वेद 10,90)। तुलना कीजिए: मुण्डकोपनिषद् 2, 1, 4।
11.दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।
(11) उसने दिव्य मालाएं और वस्त्र धारण किए हुए थे। उसने दिव्य गन्ध (इत्र) और लेप लगाए हुए थे। उसमें सब आश्चर्य थे। वह दिव्य और अनन्त था। उसके मुख सब दिशाओं की ओर विद्यमान थे।
12.दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्धासस्तस्य महात्मनः।।
(12) यदि आकाश में एक हजार सूर्यां की चमक एक-साथ दमक उठे, तो वह उस महान् आत्मा के तेज के समान हो सकती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उपनिषद् का कथन है: सुनते हुए भी वे नहीं सुनते; जानते हुए भी वे नहीं जानते; देखते हुए भी वे नहीं देखते; वे केवल ज्ञान की आंखों से देखते हैं। शृण्वन्तोअपि न शृण्वन्ति जानन्तोअपि न जानते। पश्यन्तोअपि न पश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।। मोक्षधर्म में निम्नलिखित श्लोक मिलता है: माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्युक्तं न तु मां दृष्टुमर्हसि।। इस पर टीक करते हुए मधुसूदन ने कहा है: ’’सर्वभूतगुणैर्युक्तं कारणोपाधि मां चर्मचक्षुषा द्रष्टुं नार्हसि।’’ पैगम्बर के शब्दों में तुलना कीजिए:’’प्रभु उसकी आंखे खोल दो, जिससे वह देख सके।’’ साथ ही देखिए विजन आफ ऐजेकियेल, ऐक्सौडस 33, 18; रीवैलेशन, 4; और सद्धर्म पुण्डरीक, 1। ’’उठो चमको; क्यों कि तुम्हारा प्रकाश आ गया है और प्रभु की महिमा तुम्हारे ऊपर उदित हुई है। तुम देख पाओगे और देदीप्यमान बनोगे और तुम्हारा हृदय रोमांचित और विशाल हो जाएगा।’’ (ईसाइयाह 9, 1-5)।यह दर्शन कोई मानसिक कल्पाना नहीं है, अपितु सीमित मन से परे एक सत्य का उद्घाटन है। यहां अनुभव की स्वतः स्फूर्तता और प्रत्यक्षता को स्पष्ट किया गया है।