भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 202

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अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   
13.तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यछद्देवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।
वहां पाण्डव (अर्जुन) ने उस देवों के भी देव के शरीर में अनेक रूपों में बंटे हुए सारे संसार को एक ही जगह स्थित देखा।अर्जुन को नाना वस्तुओं में परमात्मा का और एक परमात्मा में ही नाना वस्तुओं का दर्शन हुआ। सब वस्तुएं वही रहती हैं, और फिर भी वे सब बदल जाती हैं। दैनन्दिन जगत् की परिचित वस्तुओं के लुप्त हो जाने पर प्रत्येक वस्तु उस सम्पूर्ण को प्रतिबिम्बित करती है। यह दर्शन सारे पार्थिव जीवन की सम्भाव्य दिव्यता का प्रकाशन है।
 
अर्जुन भगवान् से निवेदन करता है
14.ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनज्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताज्जलिरभाषत।।
तब धनंजय (अर्जुन) आश्चर्य से अभिभूत हो गया। उसके रोंगटे खडे़ हो गए। उसने सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर भगवान् को प्रणाम किया और कहा:आतंक से विकल होकर, रोमांचित होकर, सिर झुकाए और हाथ जोडे़ हुए अर्जुन स्तुति करता है।
 
अर्जुन उवाच
15.पश्यामि देवांस्तव देव देहे,
सर्वास्तथा भूतविशेषसंगान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषीश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।
अर्जुन ने कहा: हे भगवान्, मैं तुम्हारे शरीर में सब देवताओं और विविध प्रकार के प्राणियों के समूहों को देख रहा हूं। मैं कमल के आसन पर बैठे हुए विधाता ब्रह्म को तथा अन्य ऋषियों को दिव्य नागों को देख रहा हूं।परमात्मा का दर्शन हमारे क्षितिज को विस्तृत कर देता है और वह हमें उस पार्थिव कोलाहल और कष्टों से परे ले जाता है, जो इतनी आसानी से हम पर हावी हो जाते हैं। परमात्मा की सृष्टि इस छोटे-से ग्रह तक ही सीमित नहीं है, जो कि इस ब्रह्माण्ड का एक क्षुद्र-सा अंश है। अर्जुन देखता है कि यह विश्व तो अनेक और विविध प्रकार की आत्माओं से भरा हुआ है।
 
16.अनेकाबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोअनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं,
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।
मैं तुझे सब ओर अनन्त रूपों में देख रहा हूं। तेरी अनेक भुजाएं हैं; अनेक पेट हैं; अनेक मुख हैं और अनेक नेत्र हैं; परन्तु हे विश्व के स्वामी, हे विश्व-रूप, मुझे कहीं तेरा अन्त, मध्य या आदि दिखाई नहीं पड़ रहा ।वक्त्र: चेहरे या मुख।
 
17.किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च,
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्चामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।
मैं तुझे मुकुट, गदा ओर चक्र धारण किए हुए, सब ओर दमकते हुए तेजः- पुंज के रूप में देख रहा हूं, जिसे देख पाना भी कठिन है (चैधियाने वाला), जो सब ओर से धधकती हुइ आग और सूर्य के समान देदीप्यमान है और जो अनुपम है।
 
18.त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं,
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता,
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।
तू अनश्वर भगवान् है, जिसका ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। तू संसार का परम विश्राम का स्थान है; तू शाश्वत (सनातन) धर्म का अमर रक्षक है। मुझे तो लगता है कि तू ही सनातन पुरुष है।अक्षरम्: अनश्वर। अर्जुन कहता है कि भगवान् ब्रह्म और ईश्वर, दोनों ही है। परब्रह्म और परमात्मा दोनों। [१]शाश्वतधर्मगोप्ता: सदा बने रहने वाले धर्म का अमर रक्षक। अभिनवगुप्त ने इसके स्थान पर ’सात्वतधर्मगोप्ता’ पाठ माना है, जिसका अर्थ है सात्वत धर्म का रक्षक।
 
19.अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं,
स्वचेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
मैं तुझे देख रहा हूं, जिसका न कोई आदि है, न मध्य और न कोई अन्त है; जिसकी शक्ति अनन्त है; जिसकी असंख्य भुजाएं हैं; सूर्य और चन्द्र जिसके नेत्र हैं; जिसका मुख धधकती हुई आग की भाँति है और जो अपने तेज से सारे संसार को तपा रहा है।

20. द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि,
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं,
लोकत्रयं प्रव्यथित महात्मन्।।
आकाश और पृथ्वी के बीच का यह सारा स्थान और सारी दिशाएं केवल तुझ अकेले से ही व्याप्त हैं हे महान् आत्मा वाले, जब तेरा यह आश्चर्यजनक भयंकर रूप दिखाई पड़ता है, तब तीनों लोक कांप उठते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एतेन सगुणरूपस्य निर्गुणज्ञापकत्वम् उक्तम्।- नीलकण्ठ।

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