भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 93

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
40. नेहाभिक्रमनाशोअस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।
इस मार्ग में किया गया कोई प्रयत्न कभी नष्ट नहीं होता और न कोई बाधा ही बनी रहती है। इस धर्म का थोडा़ -सा अंश भी बड़े भारी भव्य से रक्षा करता है।
कोई भी बढ़ाया गया कदम व्यर्थ नहीं जाता। प्रत्येक क्षण एक लाभ ही है। इस संघर्ष में किया गया प्रत्येक एक बड़ा गुण गिना जाएगा।

41. व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्य बुद्धयोअव्यवसायिनाम्।।
हे कुरुनन्दन (अर्जुन), इस क्षेत्र में दृढ. संकल्प वाली बुद्धि एक ही होती है, परन्तु अनिश्चित मनमाने लोगों के विचार अनेक दिशाओं में बिखरे हुए और अनन्त होते हैं।
दृढ़ संकल्पशून्य बुद्धि की चंचलता का दृढ़ संकल्प वाली बुद्धि की एकग्रता और एक-उद्देश्यता के साथ वैषम्य दिखाता गया है। मानव-जीवन किसी एक श्रेष्ठ उद्देश्य में अपने-आप को लगाकर पूर्णता प्राप्त कर सकता है, अनन्त सम्भावनाओं की असंयत खोज द्वारा नहीं। एकाग्रता साधना द्वारा प्राप्त की जानी है। चित्त-विक्षेप हमारी स्वाभाविक दशा है, जिससे हमें मुक्त होना है। परन्तु यह मुक्ति प्रकृति के या यौन-भावनाओं के, जाति या राष्ट्र के रहस्यवादों द्वारा प्राप्त नहीं होगी, अपतिु ’वास्तविकता’ की एक सच्ची अनुभूति द्वारा प्राप्त होगी। इस प्रकार की अनुभूति द्वारा प्राप्त हुई एकचित्तता एक सर्वाच्च गुण है और उसे तोड़-मरोड़कर कठमुल्लापन के रूप में नहीं बदला जा सकता।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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